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धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥1॥

भगवद गीता की अमृतवाणी यहीं से प्रारम्भ होती है — धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से। धृतराष्ट्र जो प्रतीक हैं उस मन का जो मोह, अहंकार, भय, घृणा, और तेरा-मेरा के अंधेपन से ग्रसित है।

संजय जिसे दिव्यचक्षु प्रदान किया गया है ताकि वह युद्धभूमि से दूर रहकर भी युद्ध के बारे में सबकुछ बता सके, आज के ज़माने के टीवी की तरह, दूर देश में हो रही घटना आप घर के टीवी स्क्रीन पर देख सकते हैं।

धृतराष्ट्र पूछते हैं : “संजय, मुझे वो सब बताएं जो मेरे पुत्र(मेरा) और पाण्डु पुत्र(तेरा) धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में किया?”

यह थोड़ा विचित्र है। अभी तक युद्ध शुरू भी नहीं हुई और धृतराष्ट्र पूछ रहे हैं “क्या किया?”

यह इस तथ्य का परिचायक है की शंकित मन परिणाम का पहले ही से अंदाजा लगा लेता है, बस उसे इसकी पुष्टि चाहिए।

अब ज़रा युद्ध, रथ और शंखों की आवाज़ को कुछ देर के लिए भूल जाएँ।अपने मन स्थिति को टटोलें।

आप पाएंगे की इस क्षण भी जब आप यह पढ़ रहे हैं, आप कई सारे दुविधाओं, समस्याओं के परिणाम की परिकल्पना कर चुके होंगे और मन में परिणाम की  धारणा भी बना चुके होंगे।

किसी ने रंग रूप का अपमान मिला, तो मैं दुखी हो गया,

व्यवसाय या कार्य में क्षति हो गयी, तो मैं अब बर्बाद हो  गया,

सभी अपने छोड़कर चले गए, मेरी जिंदगी तन्हा हो गयी,

काम धंधा ठीक से नहीं चल रहा, जीना दूभर हो रहा है,

अच्छी शिक्षा नहीं मिली, मैं किसी भी काम के लायक नहीं हूँ,

मेरे दाम्पत्य जीवन में क्लेश है, मैं अंदर ही अंदर टूट चुकी हूँ,

रात में नींद नहीं आती, जब आती है तो बार बार टूट जाती है,

बच्चे बात नहीं सुनते, परेशानी का कोई अंत ही नहीं है,

कितना भी करूँ, काम कभी ख़त्म ही नहीं होता,

परीक्षा के समय डर लगता है, मेरा आत्मविश्वास हिला हुआ है,

यही है आज का कुरुक्षेत्र। हर तरफ हर जगह परेशान आदमी।

और इन कठिनाइयों और परेशानियों से जूझते शरीर और मन को आत्मा का तो ख्याल ही नहीं है।

भगवद गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में ही हमें यह प्रतीति हो जाती है की जिंदगी धर्मक्षेत्र से विच्छेदित और कार्यक्षेत्र (जीवन की भागदौड़) में उलझे हुए जीवन को शांत, जागरूक, निर्मल बनाने की सर्वोत्कृष्ट प्रक्रिया की उपायों को उद्धृत करती है।

तो, यदि आप हर सुबह जब उठते हैं — आप खड़े होते हैं एक ऐसे ही दोराहे पर।

एक मन कहता है: “मुझे जीतना है, दुनिया पर राज करना है,  साबित करना है, सब पर नियंत्रण चाहिए।”

और आत्मा कहती है: “सच के साथ खड़े रहो, फल की चिंता मत करो।”

यही है आत्मा और कर्म के बीच की खींचतान।

आप कर्म के जंजाल में उलझें आत्मा को भूल ही चुके हैं — जिस कारण चिंता, भय, शोक, तुलना और थकावट ही रह गयी है। आप इस अनमोल जीवन को कौड़ी के भाव क्षण क्षण लुटाते जा रहे हैं।

आप सोच रहे होंगे, धर्मक्षेत्र में रहने से क्या हम वह सब कर पाते हैं जो आत्मा चाहती है?

फिर आपका प्रश्न होगा, आत्मा क्या चाहती है ?

आत्मा कुछ नहीं चाहती — क्योंकि आत्मा ही सर्वस्व है, यही सब कुछ है।

जब हम पर से  शरीर-बुद्धि का आवरण उतरता है, तब आत्मा हमें यह पता चलाती है:

मैं मुक्त हूँ — बस जान नहीं पाए थे।

मुझे सिर्फ कर्म करना है – पर बांध नहीं जाना है।

मैं शरीर नहीं — शुद्ध चेतन आत्मा हूँ।

आत्मा की कोई चाह नहीं, बल्कि उसका प्रकाश है — जो हमें बाहर नहीं, भीतर खींचता है।

हम कर्म नहीं हैं, हम वो हैं जो कर्म को देख रहे हैं।

हम जीव है, जीव रक्षा के लिए कर्म ज़रूरी हैं — पर आत्मा उनसे अछूती रहती है।

हमें कर्म करना है पर कार्यकर्ता का अहंकार नहीं पलना है।

हमें अपने कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र बनाना है।

और यही — गीता का कर्म ज्ञान और  आत्म-ज्ञान है।

तो  अभी इसी क्षण आप आँखें बंद कर लीजिये।  आपके जीवन में जो भी चुनौती, दुविधा, या तनाव है —

उन्हें याद करें और ये सोचने की बजाय: “अब मुझे क्या करना चाहिए?”

पहले यह पूछिए की: “मैं इस वक़्त जहाँ खड़ा हूँ, उसमें मुझे एक मुड़ाव लेकर वह क्या है जो सबसे अच्छा होगा ताकि मेरे आत्मा को स्थिरता, शुद्धता, शांति और पूर्णता प्रदान करेगा?”

आपके यही सवाल… आपका जीवन बदल सकता है।

आत्मा = अकर्ता, साक्षी, शुद्ध, अचल

आत्मा की चाह = केवल स्वरूप साक्षात्कार (आत्मबोध)

संसार का असर = तब ही जब आत्मा को देह-बुद्धि से जोड़ा जाए


 

जीवन में इसका प्रयोग कैसे करें?

हर दिन की शुरुआत में यही विचार करें:

“मैं शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ — जो केवल देख रही है।”

हर कार्य को करते हुए मन में हो:

“यह कार्य प्रकृति कर रही है, मैं नहीं।”

कार्यक्षेत्र में रहते हुए धर्मक्षेत्र के सिद्धांतों का पालन कीजिये। क्रमशः आपके भाव और भावना भावना स्थिर होती जाएगी, तब भीतर की स्वतंत्रता जागती है। यही है — आत्मा की शांति। यही है — मोक्ष का मार्ग।

बस, यह पहचानना है कि जो कुछ भी बदल रहा है — वह आप नहीं बल्कि प्रकृति बदल रही हैं। वह आप नहीं हैं, आप सिर्फ़ एक ज़रिया हैं।

आप सिर्फ़ वो ही हैं — जो साक्षी हैं, शुद्ध हैं, मुक्त हैं।

कथाकार हनुमान जी की कथात्मकता

हनुमान जी अशोक वाटिका में पहुँचते हैं और लघूरूप धारण कर पेड़ के ऊपर बैठ जाते हैं। उसी समय रावण पहुँचता है और सीता जी को बहुत तरीक़ों से भयभीत करने की कोशिश करता है फिर चला जाता है। सीता जी दुखी हो जाती हैं।
हनुमान जी एक नायाब तरीक़े से ख़ुद को सीता के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। वे सबसे पहले राम द्वारा दी हुई अँगूठी नीचे गिरा देते हैं, सीता अँगूठी देखकर विस्मित हो जाती हैं, उसी समय हनुमान जी राम गुणगान करने लगते हैं जिससे सीता के मन की व्यथा दूर होने लगती है।
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥
सीता की उत्सुकता बढ़ने लगती है वो कहती है तुम कौन हो भाई नीचे तो आओ। हनुमान नीचे आते हैं और अपना परिचय देते हैं:
राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥5॥
कहते हैं कि माँ मैं राम दूत हूँ और कृपा निधान की सपथ मानिए यह सत्य है। सीता जी को मुद्रिका देख कर विश्वास हो जाता है।
यहाँ हमारे लिए दो सीख है;
१) जब कभी आप किसी व्यक्ति से सम्बंध जोड़ने की कोशिश करें तो पहली कोशिश भरोसा पैदा करने की कीजिए,
२) अपने बातों को तथ्यात्मकता के साथ एक कथावाचक(storyteller) के तरह प्रस्तुत करिए।
आज पूरी दुनिया में कथा वाचकता को लोग सर्वोपरि गुण मानते हैं, हनुमान जी एक बहुत उमदा कथावाचक हैं, उनसे सीख लीजिए और एक दक्ष कथा वाचक बनिए।

जिज्ञासु बनिए ज्ञानी नहीं

एक छोटी बच्ची स्कूल से वापस आकर मम्मी से बोली, “मम्मी आज में “सुपर एचीवर” बन गयी। “
मम्मी, “लेकिन प्रांशु का क्या हुआ जो हमेशा बनता था?”
बच्ची, “वो आज स्कूल आया ही नहीं तो टीचर ने मुझे बना दिया।”
मम्मी स्तब्ध…
हम तो यह सोच ही नहीं सकते। हमारे सोचने की शक्ति खो चुकी है। कभी आप बच्चे के साथ बगीचे में जाओ. बच्चा पूछेगा – “बृक्ष हरे क्यों हैं?” आप कहोगे, “वृक्ष हरे ही होते हैं इसमें सवाल जैसी कोई बात ही कहाँ है। ” पर अगर एक विज्ञान का स्टूडेंट है तो वो कहेगा क्लोरोफिल के कारण। मगर बच्चे के मन में और कौतुहल बढ़ता है। वो पूछेगा कि वृक्ष में क्लोरोफिल क्यों है? आखिर क्लोरोफिल को वृक्ष में होने की क्या जरूरत है? और, आदमी में क्यों नहीं है? और, क्लोरोफिल कैसे वृक्षों को खोजता रहता है? ‘क्यों’ का कोई सवाल क्लोरोफिल से हल नहीं होता।
आज बच्चे शिक्षकों की उपेक्षा करने लगे हैं। उन्हें भाव नहीं देते। उनका आदर नहीं करते। क्योंकि उन्हें जवाब नहीं मिलता। उन्हें किताब की रटी रटाई बात बताई जा रही है। उनके जिज्ञासा को दबाई जा रही है।
थोड़ा ज्ञान का पर्दा जो लग गया है उसे हटाकर जिज्ञासा की कुछ बुँदे आँखों में डालें।
आप पाएंगे कि चारों तरफ रहस्य खड़ा हुआ है। हरे वृक्ष हरे है, यह भी रहस्यपूर्ण है। वृक्षों में लाल फूल लग रहे हैं, यह भी रहस्यपूर्ण है। एक छोटे—से बीज में इतने—इतने विराटकाय वृक्ष छिपे हैं, यह भी रहस्यपूर्ण है। जीवन शाश्वत मालूम होता है।हर घड़ी रहस्य से भरी है। पर, आपने अपनी आंखें बंद कर ली हैं। आप ने अपनी जिज्ञासा ख़त्म कर दी है। अनंत आनंद है और आनंद मार्ग का पहला कदम ही जिज्ञासा है। जिज्ञासु बनिए ज्ञानी नहीं।

डरो मत

“हमारे संदेह गद्दार हैं। हम जो सफलता प्राप्त कर सकते हैं, वह नहीं कर पते, क्योंकि संशय में पड़कर प्रयत्न ही नहीं करते। ” शेक्सपियर
अभी कुछ दिनों पहले राहुल गाँधी ने सारे देवी देवताओं के प्रतिमाओं के वरदहस्त रूप के ओर इशारे करते हुए कहा की वे हमें कहते हैं कि “डरो मत।”
वास्तव में भविष्य में उत्पन्न होनेवाली चिंता और कठिनाई के बारे में सोचकर काफी लोग कुछ निर्णय ही नहीं लेते है।बीते हुए कल का पश्चात्ताप और आने वाले कल की चिंता कइयों को अकर्मण्य बना देती है।
जीवन बहूत सुन्दर है, बहूत शानदार है और असीम संभावनाओं से परिपूर्ण भी है। हममे वो सारी खूबियां मौजूद है जिसके बूते हम कुछ भी थान लें तो उसे पूरा कर सकते हैं। जरूरत यह है हम भविष्य में आनेवाली संकट की परवाह न करें और प्रसन्न रहें।
जबतक दुर्गम रास्ते पर करने की नौबत न आये, उसके बारे में व्यर्थ चिंता न करें, यह मत सोचें कि रास्ता कैसे पर होगा। भगवान् पर भरोसा रखें, प्रसन्न रहें, मन में विश्वास को ओजस्वित रखें और अपना कर्म करते रहें।
जीवन एक ईश्वरीय उपहार है, जीवन सुन्दर है, जीवन शानदार है। हमारा उद्देश्य इसे और सुखी और शानदार बनाना है। हम दासता और भय को दूर करें तो सुख, समृद्धि और सफलता हमारे पाँव चूमेगी।

यूँ घूर घूर कर मुझे देखा न करो

कुछ दिन पहले  एक कॉलेज स्टूडेंट से बात हो रही थी तो वो कह रही थी कि किस तरह पुरुष वर्ग लड़कियों पर तंज कसते हैं, उन पर अभद्र व्यंग करते हैं, ललचाई नजरों से घूरते हैं और कभी कभी तो अश्लील हरकतें भी करने को उन्मादित होते हैं। इसे लड़की ताड़ना कहते हैं।
मैं जब भी ऐसे वाक़या के बारे में सुनता हूँ या ऐसा करते हुए युवकों को देक्ठा हूँ  मुझे रामचरित मानस की एक चौपाई और राम लक्ष्मण के जनकपुर भ्रमण वाली प्रसंग याद आ जाती है। प्रसंग कुछ ऐसे है
हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
जाहिं जहाँ जहँ बंधू दोउ तहँ तहँ परमानन्द।।
राम विश्वामित्र के संग मिथिला पँहुचते है। शाम के समय विश्वामित्र जी राम और लक्ष्मण के साथ सत्संग के लिए बैठते हैं। लक्ष्मण जी का मन सत्संग में नहीं लग रहा क्योंकि उनके मन में अयोध्या घूमने की कौतुहलता है। राम यह भांप लेते हैं और गुरु जी से शहर देखने जाने के अनुमति का अनुग्रह करते हैं। गुरु जी यह जान लेते हैं की भगवन की इच्छा अपने गुण शील और ज्ञान युक्त मिथिला के भक्तों को दर्शन देने की है तो उन्हें आज्ञा दे देते हैं।
राम लक्ष्मण नगर की ओर चल देते हैं। बच्चे उनके पीछे पीछे, पुरुष सड़क के दोनों ओर और नगर की नारी वर्ग अपने घरों के छत से भगवान् के दर्शन के लिए उमड़ पड़ते हैं। उनके मनोहर छवि की एक झलक पाने को सब लालायित हैं। राम और लक्ष्मण बिना इधर उधर देखते हुए नगर भ्रमण कर रहे हैं । स्त्रियों को भगवान के मुख का दर्शन नहीं हो पा रहा और इसलिए वो थोड़े उदास हैं, वो आपस में उपाय सोच रही है कि किशोर राम और लक्ष्मण के मुख का दर्शन कैसे किया जाए।
फिर एक स्त्री उपाय बताती है – “अरे सखी अपने अपने बेनी के फूल निकालकर हम उनके ऊपर फेंकते है ताकि वो नजर ऊपर की तरफ करें और हमें उनका दिव्य दीदार हो जाए। सारी स्त्रियाँ ऐसा ही करती हैं भगवान् के ऊपर सुन्दर और सुगन्धित पुष्पों की वर्षा होती है और भगवान् अपनी नजर ऊपर के तरफ करते है और उनके मुखावलोकन से नारियाँ मन्त्र मुग्ध हो जाती है।
तो अगर आपको किसी को आकर्षित करना है तो अच्छे गुण शील और ज्ञान की शक्ति स्वयं में ओजश्वित करो। छिछोड़ेपन से खुद को कलंकित क्यों करते हो।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥

इस संस्कृत श्लोक का अर्थ है कि महर्षि वेदव्यास ने अठारह पुराणों में जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही है, वह यह है कि दूसरों का भला करना पुण्य है और दूसरों को अपनी वजह से दुखी करना ही पाप है।

यह श्लोक जीवन के बहुत ही मूलभूत सिद्धांत को सरलता से समझने और अपनाने में मदद भी करता है। 

परोपकार का अर्थ यहाँ अच्छे कर्म करना जैसे की जरूरतमंदों की मदद करना, समाज कल्याण की भावना को सर्वांगीण करना, आध्यात्मिक उन्नति करना तथा स्वयं एवं संसार के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखकर आध्यात्मिक उन्नति करने को ही जीवन का असली मकसद बताता है। 

अब हम यहाँ पाप को ठीक से समझें तो इसका मतलब सिर्फ धार्मिक दृष्टि से गलत कार्य ही नहीं बल्कि वे सभी कर्म भी शामिल हैं जो नैतिक रूप से, देश, काल और परिस्थिति के अनुसार भी अनुचित है और दूसरों को नुकसान या कष्ट पहुँचाने की मनसा से किये जाते हैं। 

यहाँ पीड़ा का मतलब शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, और आर्थिक पीड़ा भी है जिससे किसी की प्रतिष्ठा या किसी के अधिकारों का हनन करना भी हो सकता है। 

प्रेरणा:

  1. “परोपकाराय पुण्याय” हमें एक सच्चे और नैतिक जीवन जीने की दिशा में प्रेरित करता है।  
  2. “पापाय परपीडनम्” की अवधारणा हमें एक संवेदनशील, जागरूक और जिम्मेदार व्यक्ति बनने की प्रेरणा देती है। यह हमें याद दिलाती है कि हमारे हर कर्म का प्रभाव दूसरों पर पड़ता है, और इसलिए हमें हमेशा दूसरों की भलाई को ध्यान में रखते हुए कार्य करना चाहिए।

दुनिया आपके मुट्ठी में

एक गाँव के मंदिर में एक संत रहते थे। आस पास के गाँव के लोग अक्सर उनके पास जाकर के सत्संग का लाभ उठाते। उनके नेक एवं सटीक बातें लोगों को काफ़ी प्रोत्साहित करती और साथ ही लोगों को दैनिक जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों का सामना करने के लिए प्रेरणा भी देती।जब भी गाँव के लोग किसी संकट या उलझन में फँसा महसूस करते, वे तुरंत ही संत के पास जाते और संत उन्हें यथोचित सलाह देकर उन्हें निस्वार्थ मदद करने की कोशिश करते। यहाँ तक की अगर लोगों के बीच कुछ आपसी मतभेद या लड़ाई होती तो वे संत के पास जाते और उन्हें एक उपयुक्त और सर्वमान्य न्याय मिल जाती। इस कारण से गाँव के लोग संत के प्रति काफ़ी आदर और सम्मान की भावना रखते थे।
उनके प्रति लोगों का प्यार और विश्वास देखकर उस गाँव के कुछ नवयुवक काफ़ी ईर्ष्या महसूस करते। वे आपस में हमेशा यह बात करते रहते की हमारे पास इतनी सारी योग्यता है, हम पढ़े लिखे हैं, और हमें दुनियादारी की इतनी अच्छी समझ है फिर भी गाँव के लोग हमें कोई इम्पॉर्टन्स नहीं देते है और हमेशा इस संत के पास राय मशविरा के लिए पहुँच जाते हैं।
गाँव के युवक हमेशा ही संत की महत्ता के बारे में चर्चा करते और स्वयं को व्यथित महसूस करते। एक बार उन्होंने सोच की क्यों न इस संत की असलियत लोगों के सामने लाया जाए। क्यों न लोगों को यह बताया जाए की ये कोई चमत्कारी संत नहीं बल्कि एक साधारण आदमी ही हैं।आपस में डिस्कशन करके वे इस निर्णय पर पहुँचे की वे अगले दिन जब सारे लोग संत के पास बैठकर सत्संग कर रहे होंगे तभी वो सब साथ में जाकर संत का भांडा फोड़ेंगे।
वे सब संत के पास पहुँचे और अनुग्रह किया, “आप तो बहुत बड़े महात्मा और संत हैं। लोगों पर आपकी बड़ी श्रद्धा और विश्वास है। तो आप यह बताइए की हमारे दोनों हथेलियों के बीच में एक तितली बंद है, वो तितली ज़िंदा है या मरी हुई है।
संत ने गौर से नवयुवकों के तरफ़ देखा और उनके मंसा को समझने में उन्हें तनिक भी देरी नहीं लगी। संत ने उनसे कहा, “बच्चों, आपके हथेलियों के बीच में जो तितली बंद है वह ज़िंदा है या मरा हुआ है यह पूर्ण रूप से आपके मनःस्थिति पर निर्भर है।तितली ज़िंदा तब तक है जब तक आप अपने हथेली के बीच में उसे सहेज कर रखे हुए हैं। अगर आप चाहें तो अपने हथेलियों को ज़रा सा कस दें और तितली तुरंत ही मर जाएगी।
यह तितली ठीक उसी तरह है जैसे आपके पास असीम ऊर्जा, ज्ञान और टैलेंट है लेकिन आप उसे घृणा, नफ़रत, अकर्मण्यता और तलमटोल की आदत से पीड़ित होकर बर्बाद कर रहे हो जबकि आप उनका सदुपयोग करके एक अच्छी ज़िंदगी जी सकते हो, अपने परिवार, अपने समाज और अपने देश का नाम रौशन कर सकते हो।”
सारे उपस्थित लोगों ने मिलकर तालियाँ बजानी शुरू कर दी। नवयुवकों को संत की महानता और जीवन को सफल बनाने की कुंजी हाथ लग गयी।
तो क्या आप भी अपने गुणों को, अपने ज्ञान को और अपनी क्षमताओं को अपने मुट्ठी में बंद किए हुए है और उसे बर्बाद कर रहे हैं या उसका सदुपयोग करके स्वयं का, अपने परिवार का, अपने समाज का और अपने देश का नाम रौशन करने के दिशा में सदुपयोग कर रहे हैं?

गुरु वचनों के श्रवण से ही ज्ञान की प्राप्ति संभव है

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“गुरु वचनों के श्रवण से ज्ञान की प्राप्ति होती है और अर्जित ज्ञान का जब हम मनन, साक्षात्कार बोध और अभ्यास के माध्यम से सम्पूर्णता से ग्रहण करते हैं तो वह विज्ञान हो जाता है।
जिनमें ज्ञान और विज्ञान दोनों की स्थापना हो जाती है वैसे परमज्ञानी पुरुष के लिए धूल, पत्थर, सोना सब एक समान हो जाता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं की ऐसे परमज्ञानी योगी को हममें, तुममें, खड्ग, खंभ में।घट, घट सिर्फ़ ईश्वरीय ऐश्वर्य की ही अनुभूति और अनुभव होती है।”

तश्मै श्री गुरूवे नमः

बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि । महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ॥५॥

बंदउ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥

अमिय मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥

जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥

श्रीगुर पद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥

सूझहिं राम चरित मनि मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥

गुरु चरण वंदनीय हैं क्योंकि उनके वचन सुरुचिपूर्ण, सुगंध तथा अनुराग रास से पूर्ण हैं। गुरु सञ्जीवनी बूटी हैं जो सारे भवरोगों के परिवार का नाश करते हैं। गुरु वंदनीय हैं क्योंकि मुश्किल की घडी में जब कोई उपाय नहीं सूझ रहा हो तो उनके स्मरण मात्र से हृदय में दिव्य दृष्टी उत्पन्न हो जाती है जिससे अज्ञानरूपी अंधकार का नाश हो जाता है।

गुरु वंदनीय हैं क्योंकि संसार में जो दुःख दोष रूपी रात्रि है उसमें उनके ज्ञान के प्रभाव से नेत्र खुल जाते हैं जिससे मार्ग प्रशस्त दिखने लगते हैं।

गुरु वंदनीय हैं क्योंकि उनके चरण धूल उस अंजन के तरह है जिसे लगाने से पर्वतों, वनों, और पृथ्वी के गुह्य से भी गुह्य रहश्य अपने आप प्रकट होने लगते हैं।

श्री कृष्ण कहते हैं: जो व्यक्ति मुझे जान लेता है उसे शांति प्राप्त हो जाता है

श्री कृष्ण कहते हैं:
“भक्तों द्वारा किए गए सारे यज्ञों और तपों के भोक्ता, सम्पूर्ण ब्रह्मांड के महान ईश्वर एवं सभी प्राणियों के मित्र  के रूप में जो व्यक्ति मुझे जान लेता है उसे शांति प्राप्त हो जाता है।”

किसी ने भजन कर लिया, किसी ने ध्यान कर लिया, किसी ने पूजा कर ली, किसी ने नाम स्मरण कर लिया, किसी ने यज्ञ कर लिए — चाहे जो भी किए जैसे भी किए सबके भोक्ता भगवान ही हैं। सिर्फ़ शर्त यही है की भाव भक्त का होना चाहिए।

किसी का सहारा बन गये, किसी की भूख मिटा दिये, किसी के दर्द की दवा कर दिए, किसी के आंसू पोंछ दिए, किसी के सपने सच कर दिये, किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट का कारण बन गये, इत्यादि सत्कर्मों के भोक्ता भी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही हैं।

वह जो अच्छे बुरे सभी परिस्थितियों में साथी सहायक बने, वह जो समर्थक और शुभचिंतक है, वह जो सब प्रकार से अपने अनुरूप रहे, वह जो प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों में हित ही चाहे — श्रीकृष्ण कहते हैं तुम मुझे सभी प्राणियों का मित्र मान लो।

अभी से श्रीकृष्ण के इस वचन को गठरी में बांध लीजिए की वे ही हमारे प्रथम, एकमात्र और सर्वोपरि मित्र हैं, हमें तो केवल भक्ति का रिश्ता निभाते रहना है।

ॐ शान्ति: शांति: शांति:

दुख के कारण क्या क्या हैं

श्रीकृष्ण कहते हैं: “इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होनेवाला सुख आदि अंत वाले और दुःखके कारण हैं। अत: बुद्धिमान पुरुष उनमें मन नहीं रमाते।”
आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा और मन ये छह इंद्रियाँ सतत ही विषयों का भोग मिले इसके लिए लालायित रहते हैं बिलकुल मोबाइल फ़ोन के अंटेना की तरह बल्कि उससे भी तीव्र। अगर विज्ञान की भाषा से देखें तो इनकी ग्रहण शक्ति बाक़ी सारे अंटेनाओं से काफ़ी ज़्यादा हैं। आँख देखने के लिए, कान मधुर वचन सुनने के लिए, नाक सुगंध के लिए, जिह्वा स्वादपूर्ण भोजन के लिए, त्वचा स्पर्श के लिए तो मन भोग विलास मय विचारों में  लीन रहने के लिए।

ज़रा सोचिए — आपको रसगुल्ला खाने की इच्छा है, सामने रसगुल्लों से भरा प्लेट आ जाए। आप को ५ १० रसगुल्ले तो बड़े अच्छे लगेंगे लेकिन आपसे १०० रसगुल्ले खाने को कहा जाए तो वह सुख देने वाला होगा या दुःख? इसी तरह, आपका प्रेमी आपसे एक दो बार “आई लव यू” कहने की जगह हार २ मिनट में “आई लव यू कहना शुरू करदे तो आप तो पागल ही जो जाओगे ना।

इसीलिए श्रीकृष्ण यहाँ चेताते हैं की बुद्धिमान पुरुष इंद्रियों और विषयों के भोग से प्राप्त होने वाले स्थिति में मन नहीं रमाते। आप क्या कर रहे हैं? सोचिएगा।

सावधान सावधान सावधान

एक शिष्य ने मास्टर से आग्रह किया “आप मेरे लिए सबसे ज्ञानपूर्ण शब्द लिख दीजिये।”

मास्टर ने पेन उठाई और एक शब्द लिख दिया “सावधान”

शिष्य ने कहा “बस इतना ही” मास्टर ने फिर लिख दिया “सावधान। सावधान।”

शिष्य थोड़ा खीझ गया “यह इतना महत्वपूर्ण है ऐसा मुझे नहीं लगता।” मास्टर ने जवाब दिया “सावधान। सावधान। सावधान।”

निराशाभरे स्वर में पूछा “सावधान का यहाँ मतलब क्या है?” मास्टर ने उत्तर दिया “सावधान माने सावधान ही होता है.”

अगर जितना है तो अपने मन, बल और बुद्धि को काबू में करिये और फिर देखिये आप सांसारिक कार्यों को कितने आसानी से जीतते हैं। अपने अंतर्मन के खेल को सिर्फ सावधानी से सावधानी पूर्वक सावधान रहते हुए ही जीतें।

गुणों और कर्मो के हिसाब से ही वर्णों का विभाजन

श्रीकृष्ण कहते हैं: “गुणों और कर्मों के हिसाब से मैंने ही चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की रचना की है। पर मुझे कर्म लिप्त नहीं करते क्योंकि कर्म फल की चिंता नहीं करता।

यहाँ कहीं भी यह नहीं कहा गया है की क्योंकि तुम एक ख़ास वर्ण में पैदा हो गए इसलिए तुम बड़े हो गए या तुझे इसका घमंड करना चाहिए। आज की करियर सफलता की जितनी भी विधाएँ हैं सब यही सुझाते हैं की तुम वह काम करो जिसमें तुझे रुचि हो, करने में मज़ा आए और प्रसन्नता मिले ।

जिनमें विद्या अर्जन, बुद्धि विकास, और ज्ञान मार्ग में अधिक रुचि है वो ब्राह्मणत्व वाला कार्य करें। जिनमें शारीरिक क्षमता और शक्ति के पथ पर चलने की इच्छा हो वो राष्ट्र और रक्षा सम्बन्धी कार्य को करें। जिन्हें धन अर्जन का शौक़ हो वो वैश्य (उद्दमी) का कार्य करें और जिन्हें सेवा सहायता के क्षेत्र में कौशल हो तो वो शूद्र (सेवा) का कार्य करें।
सफलता का मूल मंत्र ही यही है की यदि एक व्यक्ति एक प्रकार का कार्य पूरा मन लगाकर करता है, तो उसमें कुशलता और विशेषज्ञता मिल जाती है ।। बार- बार कार्य को बदलते रहने से कुछ भी लाभ नहीं होता, न काम ही अच्छा बनता है।

समदर्शी ज्ञानी पुरुष ब्राह्मण में चाण्डाल में तथा गाय हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखते हैं

श्रीकृष्ण कहते हैं “समदर्शी ज्ञानी महापुरुष विद्याविनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्माको देखनेवाले होते हैं।”

हमारी सामाजिक प्रथा मानव को जाती के आधार पर बाँटती है तो पशुओं को योनि के आधार पर। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं की जो आध्यात्मिकता के बल से समदर्शी हो गए हैं वो जाती वर्ग, धर्म चरित्र स्वभाव व्यवसाय रोज़गार इत्यादि द्वारा मानव और जानवर में भेद नहीं करते। जैसे सूरज की रोशनी सब के लिए बराबर है। जैसे वर्षा सब जगह बराबर होती है। जैसे हवा समान रूप और गति से सब जगह उपलब्ध है

मुझे एक कहानी याद आ रहा है। इंद्र अपनी सभा में राजा श्रेणिक के समदर्शिता की प्रसंशा कर रहे थे। एक देवता से सुना न गया। उन्होंने श्रेणिक की परीक्षा लेने के लिए धरती लोक पर आए।वो साधु का रूप बनाकर तालाब में मछली मारने का नाटक करने लगे। थोड़ी देर में श्रेणिक जब उधर से गुजरे तो उन्होंने आपत्ति जतायी “अरे! आप यह क्या अपकर्म कर रहे हैं?

साधु ने जवाब दिया “मैं धर्म अधर्म नहीं जानता। मैं इन मछलियों को बेचूँगा और जाड़े के लिए कम्बल खरीदूँगा।”

राजा श्रेणिक बिना कोई जवाब दिए वहाँ से चल दिए।

देवता वापस आकर इंद्र से बोले “श्रेणिक सचमुच में साधु है — उसने पापी असदाचार की निंदा एवं उनसे घृणा करना भी छोड़ दिया है।”

वही लोहा पूजा में भी और बधिक के काम भी आता है।
नाले का पानी जब गंगाजल में मिल जाता है तो गंगाजल बन जाता है।

एक ही पत्थर भगवान की मूर्ति और नारियल तोड़ने के लिए उपयोग किया जाता है।

समदर्शी बनिए भेद भाव छोड़िए।

आत्मा तथा परमात्मा के लक्षण समान हैं दोनों चेतन, शाश्र्वत तथा आनन्दमय हैं | अन्तर इतना ही है कि आत्मा शरीर की सीमा के भीतर सचेतन रहता है जबकि परमात्मा सभी शरीरों में सचेतन है | परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान है।

तुम मेरे शोक ऑब्जर्वर हो

गाड़ी सड़क पर चलती रहती है। एक्सेलेरेटर, गियर, ब्रेक, इंजन सब आपस में तालमेल बनाए हमें गंतव्य तक पहुंचने में मदद करते रहते हैं।

लेकिन, इस सब के बीच में एक गाड़ी का पार्ट होता है जो बिना कुछ बताएं या जताए गाड़ी को ऊंच नीच गड्ढा खाई से बचाते हुए एक सुखद और आरामदायक सफर मुमकिन करता है उसे शोक ऑब्जर्वर कहते हैं।

हमारी जिंदगी में भी कुछ लोग ऐसे ही शॉक ऑब्जर्वर की तरह होते हैं। न कुछ मांगा, न कुछ पूछा, न जताया न बताया, बस आपके जीवन मार्ग को सुखद और आरामदायक बनाता रहा —अच्छे वक्त मै साये की तरह और कठिन क्षणों में शॉक आब्जर्वर की तरह!

ऐसे लोगों का नाम पता अपने दिल पर लिख लीजिए।

जो यह पढ़े हनुमान चालीसा होये सिद्धी साखी गौरिसा

सिद्धि का अर्थ अलौकिक शक्तियों के प्रभाव से कठिन से कठिन कार्य में भी जैसे कि किसी लक्ष्य की प्राप्ति, किसी समस्या का समाधान, या किसी परियोजना में सफलता प्राप्त कर लेना है।

मन की शुभ कामनाओं की पूर्ति हो जाना मनोकामना सिद्धी है।
भक्ति की याचना करते करते भक्त हो जाना भक्त की सिद्धी है।
परमात्मा की प्रार्थना करते करते परमात्मा मिल जाए तो भक्ति की सिद्धी है ।
और आत्मनुभूति हो जाए तो ज्ञान की सिद्धी है।
जगत में राग न रहे तो वैराग्य की सिद्धी है ।

उपरोक्त अंश हनुमान चालीसा की फलसिद्धि के लिए सम्मिलित है और तुलसीदास कहते हैं की जो व्यक्ति यह हनुमान चालीसा पढ़ लेता है उसको सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है और यह भगवान शंकर को साक्षी रखकर प्रमाणित है।

तत्त्वज्ञान से ही परमात्मा दर्शन

श्री कृष्ण कहते हैं ^हे पार्थ जब तुम तत्वज्ञान को प्राप्त कर लोगे तो तुममें जो यह मोह माया है वह नहीं रहेगी और तुम सम्पूर्ण प्राणियों को अपने आत्म स्वरूप में तथा मुझमें देखोगे।”
पहले श्रीकृष्ण कहते हैं कि गुरुसे विधिपूर्वक श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेपर तुम सबसे पहले अपने स्वरूपमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देखने लगते हो। सब मैं ही हूँ और सबमें मेरे ही अंश है। फिर जब हम सत्संग, ध्यान, धारणा इत्यादि प्रक्रियाओं द्वारा ईश्वरीय तत्व को समझ लेते हैं फिर तुम्हारी यात्रा तत्वमय स्वयम से ईश्वरमय में विलीन हो जाती है। फिर तेरा मेरा का फेर छूट जाता है। तुम्हारा क्या है जो तुझे खोने का डर है। तुमने क्या पैदा किया है जिसके नष्ट होने से तुम दुखी होओगे। न कोई उमंग है। न कोई तरंग है।  द्वैत अद्वैत से भी परे अहं ब्रह्मास्मि में स्थित हो जाओ इसे श्रीकृष्ण तत्वज्ञान कहते हैं।

ज्ञान प्राप्ति के योग्य गुरु कौन है

श्रीकृष्ण कहते हैं “अपने आप को सम्पूर्ण समर्पित कर नम्रता, सरलता और जिज्ञासु भाव से ऐसे गुरु जिन्हें आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान हो तथा जो अनंत स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थित हो उनके पास जाकर ज्ञान प्राप्ति कर।”

गुरु वह है जो अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाए। क्योंकि हम ज़िंदगी में कई बार ऐसे दुर्गम स्थिति से गुजरते हैं जहां हमारे लिए सही सोचना, सही समझना और समुचित निर्णय लेना दूभर हो जाता है। अर्जुन भी काफ़ी परेशान था और पशोपेश में था।
दो जगह हमें गुरु की आवश्यकता का बहुत ही सुंदर परिचय मिलता है — (क) जब राम सबरी के आश्रम में आते हैं तो सबरी उन्हें पहचान नहीं पाती और कोई छलिया समझकर भाग देती हैं तो उसी समय उनके गुरु मतंग मुनि जी प्रकट होते हैं और कहते हैं “ऐ सबरी यही तो तुम्हारा राम है।” (ख) जब तुलसीदास जी के पास राम लक्ष्मण बाल रूप में आते हैं और चंदन लगा देने कीं ज़िद्द करते हैं तो वो उन्हें भगाते हैं तभी हनुमान जी आकर उन्हें कहते हैं “ये भगवान राम और लखन स्वयं ही बालरूप में हैं” आपने सुना ही होगा “चित्रकूट के घाट पर लगे संतान की भीर। तुलसीदास चंदन रगड़े तिलक करे राम रघुवीर।”
ज़िंदगी में जब भी प्रश्न या परेशानी हो तो सब से पहले “गुरु से निदान का आग्रह कीजिए, अगर गुरु ना हों तो शास्त्र में सुझाए गए उपाय का अनूशरण कर लीजिए और वह भी उपलब्ध न हो तो अपने हृदय की आवाज़ सुनकर निर्णय ले लीजिए लेकिन कभी भी किसी अनभिज्ञ मानव के सलाह से निर्णय मत लीजिए।”

Dreaming with the eyes wide open

For most of the entrepreneurs and founders, there is a thin line between the weekdays and weekends. I work for managing the business during the days and weekends mostly spent on ideation, visualization, roadmap development, meetings with entrepreneurs and mentoring people.

I also spend a considerable amount of time during the weekends in daydreaming with the eyes wide open. When I am fully awake and that inner voice of faith begins speaking the promises of good things and social impacts that I have made to myself. I dream to soar my imaginations to boost the performance and connect the missing links to accomplish the goals.

Based on my experiences, I dare you to dream during the day. Want to experience it now. Close your eyes and start breathing; inhale for 5 seconds, hold for 20 seconds and exhale within 10 seconds. Continue for 10-20 minutes. Permit the voice of your spirit to embrace and let you tell about the big and bold good things that have yet to come into your life to make your living a bright and beautiful one.

Daydreaming is the seed of goodness that you saw in your life field to crop a good life. When you have an idea clarity coming from within you can then apply other factors to make it a reality.

जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ

श्रीकृष्ण कहते हैं: “हे पार्थ जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुकरण करते हैं।”

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 11||

देवकी और वसुदेव जो पूर्वजन्म में प्रिश्रि और सुतपा थे उन्होंने “मुझे आप जैसा संतान मिले” यह माँग लिया। उन्होंने भगवान से कुछ मांगने के जगह भगवान को ही माँग लिया।

राधा ने उन्हें अपनी प्रेमी के रूप में मन और हृदय में बसा लिया।

द्रौपदी के लिए सखा अर्जुन के लिए पथप्रदर्शक

सूरदास जी ने कृष्ण के बालरूप को ही अपना लिया उन्हें बड़ा होने ही नहीं होने दिया।

मीरा ने अपना सर्वश्व मानकर सबकुछ समर्पण कर दिया।

कई के लिए भगवान तो कहीं नारायण।

कुछ भुक्ति के लिए शरण का आश्रय ले लिया कुछ ने मुक्ति के लिए चरण में न्योछावर हो लिए।

कुछ दुर्योधन जैसे भी हुए जिन्होंने नारायणी सेना की तरह धन, संपती, सुख, वैभव, इत्यादि जैसी वस्तुएँ माँग ली और और मोती छोड़ कौड़ी से खुश हो गए।
पढ़िए। सोचिए। स्मरण कीजिए। आपको शरणागत के शरण में कैसी शरणागति चाहिए।

ईश्वरीय भाव कैसे प्राप्त करें

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“राग भय और क्रोधसे सर्वथा रहित मेरे में ही तल्लीन मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तपसे पवित्र हुए बहुतसे भक्त मेरे भाव को प्राप्त हो चुके हैं।”

यहाँ श्रीकृष्ण ने कृष्णमय होने का उपाय बताया है। सर्वप्रथम तो इस बात की गारंटी दे रहे हैं कि मेरे में तल्लीन होकर, मेरे पर आश्रित होकर और ज्ञान से परिपूर्ण ताप द्वारा पवित्र होकर लोग मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं। लेकिन  शर्त भी यह हैं कि मुझमें भाव प्राप्ति से पहले  राग, भय और क्रोध को छोड़ना ही होगा। राग छोड़ने के लिए निष्काम कर्म, भय दूर करने के लिए अपने कर्म को ईश्वरीय आज्ञा मानकर पूरा करना और क्रोध से मुक्ति के लिए सर्वत्र ईश्वरीय अनुभूति को विकसित करना ही एकमात्र उपाय है।

एक बार मुझे क्या कमी है ऐसा मन बनाकर जी कर देखिए। एक बार मुझे किसी चीज़ से कोई दरकार नहीं है ऐसा विचार करके देखिए। एकबार ग़ुलाम की तरह नहीं बल्कि गुल्फ़ाम की तरह मन बनाकर जिएँ।

यही मार्ग तुलसीदास जी ने भी तो रामायण में कहा ही है: “प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।”

भावनाओं पर नियंत्रण ही अमरत्व के योग्य बनाते हैं

श्रीकृष्ण कहते हैं:

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते || 15||

“वे बलवान और बुद्धिमान पुरुष, जिनके लिए सुख और दुख समान हैं, और जो इससे पीड़ित नहीं होते, अमरत्व के योग्य हो जाते हैं।”

हमारे शारीरिक और मानसिक अनुभव देश, काल और परिस्थितियों से काफी ज्यादा निर्देशित हैं। अभी जब आप यह पढ़ रहे हैं यदि इस वक़्त आपके आस पास सर्दी है और आपने गर्म कपडे नहीं पहने हैं तो आपको ठण्ड महसूस हो रही होगी। लेकिन ठीक उसी जगह अगर कोई ठण्ड कपडे पहने हुआ है तो उसे इतनी ठंड नहीं लग रही होगी जितनी की आपको। 

ठीक सर्दी और गर्मी के एहसास की तरह ही सुख दुख हानि लाभ इत्यादि भी क्षणिक अनुभव मात्र हैं। इनसे उत्प्रेरित भावनाएं स्थायी नहीं होती। वे आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी स्थिति हमेशा नहीं रहती।

हमारी तेज-तर्रार दुनिया में हम अक्सर आराम, सफलता और खुशी की तलाश में रहते हैं। लेकिन क्या होगा अगर सच्चे सुख की कुंजी हमारे दर्द और सुख के प्रति दृष्टिकोण में छुपी हो? 

मैं जब भी इस श्लोक पर मनन चिंतन करता हूँ तो मुझे बचपन में सुनी हुई एक कहानी याद आ जाती है। 

एक छोटे से गांव में रहने वाला रसिकलाल नाम का किसान दिन रात अपने खेतों में मेहनत करके अच्छी फसल उगाता। उसकी आर्थिक चालक काफी अच्छी थी। फिर भी यदि कभी बारिश या किसी प्राकृतिक आपदा के कारण उसकी फसल अच्छी नहीं होती तो वह काफी उदास हो जाता।

एक दिन उसके गांव में एक साधु महाराज आये। साधु महाराज अपने ज्ञान और विचारशीलता के लिए काफी प्रसिद्ध थे। रसिकलाल महात्मा के पास गए और उसे अपनी परेशानियों का उल्लेख किया। 

महात्मा ने उसे अगले दिन सुबह फिर से आने को कहा। रसिकलाल महात्मा के सुझाव को मानते हुए फिर से अगले दिन सुबह महात्मा के पास पहुंच गया। 

थोड़ी देर बाद महात्मा रसिकलाल के पास आये। उन्होंने रसिकलाल के हाथों में एक मटकी और कुछ उजले और कुछ काले रंग के पत्थर के टुकड़े थमाते हुए बोले: “आज से जब भी खुश महसूस करो तो एक उजला पत्थर का टुकड़ा लेकर इस मटकी में डाल देना और जब भी दुखी महसूस करो तो एक काला पत्थर। जब मैं अगली बार इस गांव में आऊंगा तो तुमसे मिलकर आगे की बात करेंगे”

रसिकलाल ने हामी भरते हुए मटकी और पत्थर अपने हाथ में थाम लिया और अपने घर चला गया। 

वह महात्मा के आज्ञानुसार जब भी खुश होता तो एक उजला पत्थर और जब भी दुखी होता तो एक कला पत्थर उस मटकी में डाल देता। जब उसे अच्छी फसल मिलती या परिवार में खुशी का माहौल होता, तो वह सफेद पत्थर डाल देता। और जब फसल खराब होती या किसी परेशानी का सामना करना पड़ता, तो वह काला पत्थर डाल देता।  धीरे-धीरे, उनकी मटकी सफेद और काले पत्थरों से भरने लगी।

कुछ महीनों बाद महात्मा फिर से गांव में आये।  रसिकलाल अपनी मटकी लेकर महात्मा से मिलने गया। महात्मा ने उसे मटकी से पत्थरों को उलटकर सफ़ेद और काले पत्थरों को अलग अलग गिनने के लिए कहा। 

रसिकलाल ने गिनना शुरू किया और उसे ज्यादा ख़ुशी वाले पत्थर उससे थोड़े काम दुखी वाले काले पत्थर मिले। 

महात्मा ने हंसते हुए किसान से कहा, “देखो, तुम्हारी जिंदगी में सुख और दुःख दोनों ही लगभग बराबर मात्रा में ही हैं। यहाँ तक की तुम्हारी ख़ुशी दुःख से कहीं ज्यादा ही है.”

किसान ने सिर झुकाकर पूछा, “लेकिन गुरुदेव, मैं अब भी दुखी और परेशान क्यों महसूस करता हूँ जब कोई दुखद घटना घटती है?”

महात्मा ने उत्तर दिया, “क्योंकि तुम अभी भी सुख और दुःख को अलग-अलग रूप में देख रहे हो। तुम सुख में बहुत अधिक डूब जाते हो और दुख में भी बहुत अधिक। तुम्हें समझना होगा कि सुख और दुःख जीवन का हिस्सा हैं, और दोनों को समान रूप से स्वीकार करने से ही तुम सच्चे संतोष और शांति को प्राप्त कर सकते हो। जब तुम्हें यह समझ आ जाएगी कि दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं, तो तुम अपने जीवन के हर क्षण का सामना बिना किसी पीड़ा के कर सकोगे।”

गीता के इस उपदेश से श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, बुद्धिमान और सशक्त पुरुष ख़ुशी के क्षण में न तो अत्यधिक इतराते हैं और न ही दुःख के पलों में बिचलित ही होते हैं। वे जीवन में जो भी आता है, उसके बावजूद संतुलन और शांति की भावना बनाए रखते हैं। और यही कारण है की वो अमरत्व के उत्तराधिकारी हो जाते हैं। 

यहाँ श्रीकृष्ण हमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों अनुभवों को शांत स्वीकृति की भावना से देखना सीखकर ही हम खुद को अपनी भावनाओं द्वारा नियंत्रित जाल में फ़साने से मुक्त कर सकते हैं ऐसा ज्ञान देते हैं।

यहाँ अमरत्व को भी ठीक से समझ लेना जरूरी है। यहाँ अमरत्व का मतलब जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति नहीं है बल्कि आत्म शक्ति और आत्मज्ञान की वह अवस्था जहाँ हम चिंताओं और भय से परे हो जाते हैं। यह एक ऐसी मानसिकता का विकास  करने के बारे में है जो रोजमर्रा के जीवन के उतार-चढ़ाव से विचलित नहीं होती।

हमें हमारी भावनाओं पर नियंत्रण सिर्फ सतत प्रयास से ही प्राप्त हो सकती है:

  1. माइंडफुलनेस का अभ्यास करें: अपनी भावनाओं को तुरंत प्रतिक्रिया दिए बिना देखना सीखें।
  2. कृतज्ञता विकसित करें: अच्छे समय की सराहना करें बिना उनसे अत्यधिक जुड़े हुए।
  3. लचीलापन विकसित करें: चुनौतियों को आपदा के बजाय विकास के अवसर के रूप में देखने का प्रयास करें।
  4. संतुलन खोजें: भावनाओं के चरम सीमाओं के बीच झूलने के बजाय एक स्थिर दृष्टिकोण बनाए रखने का प्रयास करें।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि सच्ची ताकत कभी दर्द महसूस न करना या हमेशा खुश रहना नहीं है। यह जीवन के सभी अनुभवों के प्रति एक शांत, संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने के बारे में है। इस दिशा में छोटे कदम से ही हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर सकते हैं और हमारे जीवन में अधिक शांति और संतोष ला सकते हैं।

आप क्या सोचते हैं? क्या आपने कभी किसी ऐसे व्यक्ति से मिले हैं जो इस तरह के भावनात्मक संतुलन को प्रदर्शित करता प्रतीत होता है? यदि आप खुशी और दुःख दोनों को एक ही स्थिर मानसिकता से देख पाते, तो आपका जीवन कैसे अलग हो सकता था?

अपनी राय जरूर दीजियेगा। 

साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालों का विनाश

श्रीकृष्ण कहते हैं:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
“मैं साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालोंका विनाश करने के लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युगयुग में प्रकट हुआ करता हूँ।”
यह एक बहूत बड़ी gauranti है ईश्वर के तरफ से कि जब भी अधर्म, अन्याय, पाप हावी होने लगेगा तो मैं आकर उनका विनाश करूँगा।
साधुता कामनाओ का विनाशक है। साधुता धर्म का विस्तारक है। साधुता स्वयं का उद्धार और लोगों का उद्धार है। साधुता सृष्टि के समस्त जड़ और चेतन के उपकार हेतु सतत प्रयत्नशील रहना है।
तो जब भी हम साधुता के पथ से भटकते हैं तो हमारी आत्मा हमे कचोटती है कि यह ठीक नहीं है लेकिन कामनाओं के प्रचंडता के कारण आत्मानुभूति दब जाती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जब तू धर्म की हानि करेगा और अधर्म को प्रभावित तब तब मैं प्रगट होऊँगा और तुझे फिर से धर्म मार्ग पर लेकर आऊँगा।


“मैं साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालोंका विनाश करने के लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युगयुग में प्रकट हुआ करता हूँ।”


यह एक बहूत बड़ी गारंटी है परमात्मा के तरफ से कि जब भी अधर्म, अन्याय, पाप हावी होने लगेगा तो मैं आकर उनका विनाश करूँगा।

साधुता का मतलाब यहां कामनाओ के विनाशक से है। साधुता धर्म का विस्तारक है। साधुता स्वयं का उद्धार और लोगों का उद्धार है। साधुता सृष्टि के समस्त जड़ और चेतन के उपकार हेतु सतत प्रयत्नशील रहना है।

तो जब भी हम साधुता के पथ से भटकते हैं तो हमारी आत्मा हमे कचोटती है कि यह ठीक नहीं है लेकिन कामनाओं के प्रचंडता के कारण आत्मानुभूति दब जाती है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जब तू धर्म की हानि करेगा और अधर्म को प्रभावित तब तब मैं प्रगट होऊँगा और तुझे फिर से धर्म मार्ग पर लेकर आऊँगा।

मेरे पिता मेरे गुरु मेरे सर्वस्व

पिता स्वर्ग: पिता धर्म: पिता ही परमं तप:।
पितरीप्रतिमपनये प्रियन्ते सर्व देवता।।
पिता तो सभी अच्छे ही होते हैं हर संतान के लिए सबसे सदैब साये की तरह साथ रहने वाला आसमा से भी विस्तृत छाया।

मेरे पिता मेरे गुरु मेरे सर्वस्व। आज जो भी हूँ बस आपकी शिक्षा, आपके मूल्यों औऱ आपके द्वारा निर्धारित किये गए सांसारिक मापदंडों के पथ पर अग्रसर रहते रहने का फल ही तो है।

हर सुबह जब पूजा के आसन पर बैठकर “मातृ पितृ चारणकामलेभ्यो नाम:” कहता हूँ तो इस विश्वास को और बल मिलता है कि आज कल से बेहतर होगा।
मुश्किल कर पल में जब कोई राह नहीं दिखती तो नस यही सोचकर कि आप होते तो क्या सलाह देते यह सोचकर निर्णय ले लेता हूँ आउट सब ठीक ही होता है।

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

श्रीकृष्ण का यह कहना कि “: यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥2/20।” अक्षरशः सत्य ही तो है।

मेरे मन मे मेरे तन मैं मेरे बातो मैं विचारों में आओहि तो हैं ओहिर क्या की नश्वर शरीर को चीर परिचित मुलाकात और व्यवहार का पर्याप्त सुखद  अवसर नहीं मिला।

मैं स्वयं की योगमाया से प्रकट होता हूं

“मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।”

परमपिता परमेश्वर का प्राकृतिक स्वभाव है की उनकी जब इच्छा हो जाए और जो स्वरूप भा जाए वो उस रूप में प्रकट हो जाते हैं। वो अंधेरा दूर करने के लिए सूर्य की रोशनी हैं, वो प्राणियों के हृदय में आत्मा रूपी रोशनी हैं, उनका प्रकाश स्वरूप है, उनका प्राकट्य सत्य है, वो वायु के रूप में यत्र तत्र सर्वत्र व्याप्त हैं, सारी क्रियाओं के सम्पादक हैं, सारी इच्छाएँ उन्ही से उत्प्रेरित हैं, सारे गंध और सारे स्वाद में वही परमेश्वर हैं।

अपनी इसी प्रकृति के कारण तो वो हेग्रिव को मारने के लिए मत्स्य बन जाते हैं, समुद्र मंथन द्वारा देवताओं को अमृतत्व १४ रत्न मिल जाए इसके लिए कच्छप, पृथ्वी को जल से बचाने के लिए वराह, प्रह्लाद की रक्षा के लिए नरसिंह, त्रिलोक को बलि से मुक्त करने के लिए वामन रूप, अहंकारी क्षत्रियों के नाश के लिए परशुराम, रावण वध और संसार को मर्यादापुरुषोत्तम का पाठ सिखने हेतु राम रूप, निष्काम, कर्मयोगी, दार्शनिक व संपूर्णावतार के रूप में कृष्ण, और बुद्ध के रूप में प्रकट हुए हैं।

कामना को इस जगत में तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु जानो

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“यह कामना रजोगुण में उत्पन्न हुई है यही क्रोध है इसकी भूख बहुत बड़ी है और यह महापापी है इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो।”

अर्थशास्त्री कहते हैं कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है और यह एक हद तक ठीक भी है लेकिन यह आवश्यकता हमारी कामना में बदल जाती है। कामना पूर्ति की इच्छा इतनी हावी हो जाती है कि हम उसे पूरा करने के लिए छल, कपट, क्रोध, बेमानी, इत्यादि करने में भी हिचक महसूस नहीं करते।

अक्सर हमारे दुखों का कारण वह वस्तु नहीं है जो हमारे पास है बल्कि वह है जो हमारे पास नहीं है। तो आज आप अपने कामनाओं की लिस्ट बनाइये और फिर उनमें से आवश्यकताएँ कौन सी है और कामनाएँ कौन सी उनका पहचान कीजिए। कामना रूपी सत्रु ने किसी को भी सुखी नहीं किया है तुलसीदास भी मानस में कहते हैं “काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं”।

बूँद जो मोती बने

बारिस की एक बूँद समुद्र में गिर जाने के कारण रोने लगी। समुद्र ने मुस्कुराते हुए कहा: “यहाँ तुम अपने भाई बहनों के साथ हो।

एक विशाल परिवार का हिस्सा। अलग होने के लिए एक छलांग लगाने की देरी है उड़ तो जाओगे लेकिन भांप बनकर बिखड़ भी।

आना तो तुझे फिर भी है :- “किसी किसान के खेत में, या किसी नाले में, या किसी तालाब में या की गंगा में गंगाजल बनकर या फिर किसी प्यासे के लिए वरदान बनकर उसके लोटे में।”

सुन रहा है ना तू रो रहा हूँ मैं

सामान्यतः हमें दो राह दिखते हैं – एक जिसमें हम क्षणिक भोग विलास के वस्तुओं के उपलब्धता को श्रेस्ठ लक्ष्य समझते हैं और दूसरी जिसमें हमारी ज़िंदगी एक समग्र लक्ष्य की प्राप्ति के ऊपर केन्द्रित रहती है।

क्योंकि हम मार्केटिंग ड्रिवेन वातावरण में जीते है तो भोग विलास के वस्तुओं पर हमारी लालसा ज़्यादा रहती है और अक्सर हम सभी इसके चार दुस्परिणामों से ग्रसित रहते हैं।

१) अभाव – हमारे आस पास एक अभाव की भावना फैली हुई है। धन न होने का अभाव, अच्छी शिक्षा न होने का अभाव, भाग्यवान न होने का अभाव, सामाजिक और सांसारिक वातावरण के अनुकूल न होने का अभाव, आदि आदि।

२) ठहराव – हम भाग तो रहे है लेकिन एक तरह से ठहर से गए हुए हैं। हमें लगने लगा है की कुछ भी होने वाला नहीं है। संसार में सबकुछ गड़बड़ और हमारे विपरीत हो गया है।

३) पथराव – अभाव और ठहराव से ग्रसित हमारी मानसिकता पथराव के ऊपर झुकने लगी है। हम कीचड़ उछालने में ज़्यादा समय व्यतीत करने लगे हैं।आज आप सोशल मीडिया देखिए हरेक आदमी बुराई, दुर्वयबहार और अश्लील भाषा में बातें करने लगे है। सदाचार काम और दुराचार का बोलबाला सब ओर फैल रहा है।

४) प्रभाव – हम अपने आपको गाहे बेगाहे प्रभावित करने की होड़ में शामिल कर लिए है। हरेक मौक़े पर अपनी बड़प्पन और अपने औक़ात की तरफ़ करने लगते हैं। अंदर से एकदम से ख़ाली पर बाहर से ज़ोर का ढिंढोरा जैसे की “सुन रहा है ना तू रो रहा हूँ मैं ।“

तुम बाकी सब छोड़कर सिर्फ़ मेरे शरण में आ जाओ

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : “तुम बाकी सब छोड़कर सिर्फ़ मेरे शरण में आ जाओ।”

अब यही बात जब एक आम आदमी कहे तो वो अपने नश्वर शरीर को ‘मैं’ मानकर कहेगा और सामने वाला इसे अपनी तौहीन समझेगा। लेकिन जब श्रीकृष्ण कहते हैं तो वह एक सिद्ध परमात्मा की आवाज़ है। उसमें मैं वाला घमंड नहीं बल्कि ईश्वरीय आश्वासन है कि जब भी तुम परेशान हो, जब भी तुम्हें आगे रास्ता न दिखे, जब भी संकट से उबरने के कोई उपाय न मिले, सुख हो या दुख —सभी को मेरे पर छोड़कर मेरे शरण में आ जा। बस वैसे ही जैसे एक छोटा बच्चा माँ के पास भाग के चला जाता है।

क्या आप धार्मिक हैं?

यतो अभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। (कणाद, वैशेषिकसूत्र, १.१.२)
धर्म वह मार्ग है जिस पर चलकर हमें लौकिक और पारलौकिक उन्नति एवं कल्याण की प्राप्ति होती है।
धर्म कोई उपासना पद्घति नहीं बल्कि जीवन-पद्घति है।
धर्म दिखावा नहीं, दर्शन है
यह प्रदर्शन नहीं, प्रयोग है।
यह मनुष्य को आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्त कर सार्थक जीवन प्रदान करने वाली औषधि है।
धर्म वह विज्ञान है जिससे स्वयं द्वारा स्वयं की खोज कर सकते है।
धर्म, ज्ञान और आचरण की खिड़की खोलता है।
यह आपको को पशुता से मानवता की ओर प्रेरित करता है।
अनुशासन का अनुशरण ही धर्म है।
हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है।
धर्म का सार जीवन में संयम का होना है।

ईश्वर सर्वत्र हैं तो दिखाई क्यों नहीं देते

संत नामदेव तेरहवीं सदी के एक प्रसिद्द संत थे। एक रोज उनके शिष्यों ने पूछा, “आप कहते हैं की ईश्वर सब जगह है तो दिखाई क्यों नहीं देता?”
संत नामदेव ने शिष्य से एक ग्लास पानी और एक चम्मच नमक लेकर आने को कहा। जब शिष्य पानी और नमक लेकर आया तो उन्होंने नमक को पानी में दाल देने के लिए कहा। शिष्य ने ऐसा ही किया। फिर नामदेव ने उनसे पूछा, “क्या तुम्हे पानी में नमक दिखाई दे रहा है?” शिष्य, “नहीं।”
नामदेव ने एक शिष्य को पानी चखने को कहा और स्वाद पूछा तो शिष्य ने उत्तर दिया, “पानी नमकीन लग रहा है। “
नामदेव ने फिर शिष्य से पानी को उबलने के लिए कहा. थोड़ी देर में पानी उबालकर भाप बन गया और बर्तन में नमक शेष रह गया। नामदेव ने पूछा, “क्या तुम्हे अब नमक दिखाई दे रहा है?”
शिष्य ने हामी में सर हिला दिया।

संत नामदेव मुस्कुराते हुए बोले, ” जिस प्रकार तुम पानी में नमक का स्वाद तो अनुभव कर पाये पर नमक को देख नहीं पाये उसी प्रकार इस जग में तुम्हे ईश्वर हर जगह दिखाई नहीं देता पर तुम उसे अनुभव कर सकते हो। और जिस तरह अग्नि के ताप से पानी भाप  बन कर उड़ गया और नमक दिखाई देने लगा उसी प्रकार तुम भक्ति ,ध्यान और सत्कर्म द्वारा अपने विकारों का अंत कर भगवान को प्राप्त कर सकते हो।”

भक्ति कीजिये, सत्संग कीजिये, ईश्वर के लीलाओं को अध्ययन मनन कीजिये, अभिमान रहित होकर गुरू की सेवा कीजिये, श्रद्धा प्रेम व लगन के साथ प्रभु नाम जपिये, दृढ विश्वास से मन्त्र का जाप कीजिये,  भगवान का सुमिरन करिये, सम्पूर्ण संसार में भगवन की अनुभूति कीजिये, संतोष पूर्ण जीवन जियें और  छल कपट से दूर रहिये। फिर ईश्वर सर्वव्यापी और सर्वत्र दिखेंगे।

भक्ति सूत्र

भक्ति हमारी आत्मा और ईश्वर के बीच एक अटूट कड़ी स्थापित करने वाली सेतु है।  भक्ति हम ईश्वर का ध्यान, जप, दर्शन, व् पूजा में से किसी भी मार्ग को जो हमें उचित प्रतीत हो उस माध्यम से कर सकते हैं या सारे मार्ग का भी यथोचित व् यथासमय उपयोग कर सकते हैं।

भक्ति का लाभ हमें समर्पण (तृष्णा और कामना),  प्रपन्नाता (अहमता एवं अहंकार)) से मुक्ति और प्रेम की अथाह वृद्धि के रूप में ही प्राप्ति होती है।

तुलसीदास रामायण में कहते हैं:
अर्थ न धरम  न काम रूचि, गति न चहु निरबान
जनम जनम रति राम पद ये बरदान मम आन

मेरे मन में धन का लोभ, कामनाओं के प्रति रूचि, जनम मरण के गति से मुक्ति मिले और राम के शरण में शरणगति प्राप्त हो जाए.

आर्यावर्त, आर्यत्व और राजा राम

सप्त मर्यादाः कवयस्ततकक्षुस्तासामेकामिदभ्यहुरो-गात् |
आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य निव्वे पथां विसर्गे धरु धरुणेषु तस्थौ || ऋ० १०|१५|०६

हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य-भाषण, और इन्हें करने वालों का सहयोग; ये सप्त मर्यादा का उल्लंघन है। वेद के अनुसार एक भी मर्यादा का उल्लघंन  करना पाप है तथा धैर्य पूर्ण तरीक़े से इन हिंसादी पापों को छोड़ देने वाला मर्यादित व्यक्ति और मोक्ष भागी होता हैं |

भगवान राम ने ताउम्र इन मर्यादाओं का पालन किया और इसीलिए हम उन्हें मर्यादापुरुषोत्तम कहते हैं। राम राज्य में ना अधर्म करना ना अधर्म होने देना आर्यत्व के लक्षण है। भारत आर्यों का देश है और इसे हम आर्यावर्त भी कहते हैं। राम कथा आर्यो के आदर्श का परिचायक हैं।

समय के साथ आर्यावर्त से आर्य मूल्यों का पतन होता गया और अनार्य विचारवादी लोगों की जनसँख्या बढ़ती गयी। अनार्यि ताक़तें आर्यवर्त पर आक्रमण करने लगे और आर्यवाद का पतन शुरू हो गया। अंग्रेज़ आए और जो थोड़ी बहुत आर्यता के सिद्धांत हममें थे उन्हें भी प्रदूषित कर गए।

आज हम विजयदशमी और दिवाली तो मना लेते हैं जिसकी शुरुआत राम का रावण पर विजय और रामराज्य की स्थापना हेतु शुरू हुई थी लेकिन हम राक्षसिय गुणों को अपने शरीर रूपी अयोध्या में धारण किए घूम रहे हैं।

आज एक ज़रूरत है की हम संकल्प ले के हम वेद स्थापित सप्त मर्यादाओं को फिर से अपने जीवन में अनुसारित करें। हम फिर से वेद मार्ग पर चलें और यही राम राज्य कि पुनः स्थापना होगी। जब हर शरीर अयोध्यामय जो जाएगा।

ॐ ईशा वास्यमिदम् सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।

ॐ ईशा वास्यमिदम् सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।

अर्थ-
इस जगत में जीतने भी जड़-चेतन प्राणी हैं वह समस्त परमात्मा से व्याप्त है । मनुष्य जगत में व्याप्त पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे।

ईशा – शक्तिवान द्वारा|
वास्यम् – अवश्य ही बसा जाना चाहिए|
इदं सर्वं – यह सब-कुछ |
यत् किंच – जो कुछ भी|
जगत्यां – संसार में| जगत् – चलायमान वस्तु है|
तेन त्यक्तेन – उस त्यागे हुए से तात्पर्य त्यागते हुए ही|
भुंजीथा – भोग कर|
मा गृधः – चाहत मत कर, लोभ मत कर|
कस्य स्वित् – किसका है|
धनम् – धन

All that exists is meant for the Lord’s habitation, including every individual universe of motion within the grand cosmic dance. By renouncing attachment, one can truly enjoy life without coveting another person’s possessions.

नारी नहीं चिंगारी है

तुम्हरेहिं भाग राम बन जाहीं ।

दूसर हेतु तात कछु नाहीं ।।

जब प्रभु राम का वन जाना तय हो जाता है तो सुमीत्राजी ने कहा, “लखन बेटा! मैं तो तेरी धरोहर की माँ हूँ, केवल गर्भ धारण करने के लिए भगवान ने मुझे माँ बनाया है।

सुमित्राजी ने असली माँ का दर्शन करा दिया, “तात तुम्हारी मातु बैदेही, पिता राम सब भाँति सनेही – तुम्हारा असली माँ बैदेही है और राम सब भांति पिता समान स्नेहप्रद हैं। “

और उन्होंने यह तक कह दिया, “जौं पै सीय राम बन जाहीं अवध तुम्हार काज कछु नाहीं – अयोध्या में तुम्हारा कोई काम नहीं है, तुम्हारा जन्म ही राम की सेवा के लिए हुआ है। “

ऐसी सुमित्राजी जैसी माताओं के जिनके ऐसे भक्त पुत्र पैदा हुए, सेवक पैदा हुए, महापुरूष पैदा हुए, कल्पना कीजिए “

सुमित्रा जी उन सारी माताओं के शौर्य हैं जिन्होंने अपने दुधमुंहे बच्चों को इस देश की रक्षा के लिए दुश्मनों के बंदुक की गोलियाँ खाकर मरते हुए अपनी आखों के सामने देखा है।

आप कल्पना कर सकते हैं, कि माँ के ऊपर क्या बिताती होगी? जब उन्हें पता चलता होगा किए उनके बालक का सिर काट दिया गया है, माँ ने आँखें बंद कर लेती है, ह्रदय पर मुक्का मार ली हैं – कोई बात नहीं जीवन तो आना और जाना है, देह आती है और जाती है, धर्म की रक्षा होनी चाहिए, जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उनकी रक्षा करता है, “धर्मो रक्षति रक्षितः”

इस देश की रक्षा के लिए कितनी माताओं की गोद सूनी हुई, कितनी माताओं के सुहाग मिटे, कितनों की माथे की बिंदी व सिन्दूर गए, कितनो के घर के दीपक बुझे, कितने बालक अनाथ हुए, कितनो की राखी व दूज के तत्यौहार मिटे, ये देश, धर्म, संस्कृति तब बची है, ये नेताओं के नारो से नहीं बची, ये माताओं के बलिदान से बची, इस देश की माताओं ने बलिदान किया।

माताओं के सामने काल हमेशा कांपता है, माताओं को काल नहीं ले जा सकता, काल शरीर को ले जाता है, माँ को काल स्पर्श नहीं कर सकता। और अगर कल्पना से प्रेरणा मिले तो कुछ करिये ताकि मातृत्व की गरिमा बानी रहे।

क्या आपने कभी विश्राम किया है?

भगवान शिव क्षीरसागर से निकले हलाहल का पान कर लिए। पीने के बाद देवता लोग आए और पूछे,”प्रभु आपने विष का पान किया तो आपको डर नहीं लगा?”

शिवजी ने पूछा, “यह हलाहल विष कहाँ से आयी?”
देवता बोले, “समुद्र मंथन से।”
शिवजी ने पूछा, “समुद्र मंथन किसने किया?”
देवता, “जब सारे देवता थक गए तो सागर के स्वामी भगवान विष्णु ने स्वयं।”
शिवजी, “तो आप समझो – भगवान विष्णु स्वयं ही इसे पी लेते लेकिन उन्होंने मेरे पास भेज दिया। मैं तो राम राम जाप रहा था और उन्होंने विष भेज दिया। मैं तो इसे मेरे राम का प्रसाद समझकर पी लिया और विश्राम पा लिया।”

तो आपके पास जो भी है, जो भी आए उसे भगवान का प्रसाद समझ कर पान कर लीजिए, सहजता से विश्राम की अवस्था में सदैव रहेंगे।

आपका नेटवर्थ क्या है?

अगर हम अकाउंटिंग के दृष्टिकोण से देखें तो आपके पास जो सम्पत्ति है उसमें से आप की जो देनदारी है उसे घटा दें तो आपकी नेटवर्थ पता चलता है, यानी आपकी आर्थिक ताक़त क्या है !

आजकल क़र्ज़ और क्रेडिट कार्ड के माध्यम से गाड़ी, घर, फ़ोन, विदेशों में छुट्टी, इत्यादि की होड़ सी लगी हुई है। जिसके कारण हमारे ऊपर देनदारी ज़्यादा होती है और हमारी नेटवर्थ नेगेटिव ही रहती है। यह इसलिए होता है की हम आर्थिक प्लानिंग की ज़रूरत ही नहीं समझते।

आप थोड़ी मेहनत कीजिए – अपना नेटवर्थ का लेखा जोखा लीजिए, अपने आने वाले दिनों के ज़रूरतों का आकलन कीजिए, आपके कमाई के श्रोत को समझिए और फिर अपने ध्यान इस ओर केंद्रित कीजिए ताकि आपकी कमाई बढ़े और ख़र्च काम हो। नेटवर्थ हर दौर में कमाल की बात रही है और रहेगी।

इन तीन क्षेत्रों पर ध्यान दें और अपनी योजना बनायेंगे तो आपका नेटवर्थ बढ़ना भी शुरू हो जाएगी:

१) अगर आप हिसाब लिख सकते हो तो पिछले ३ महीने में आपने कहाँ कहाँ पैसे ख़र्च किए हैं उसका हिसाब लिखो।हर कुछ चाय, कॉफ़ी, कपड़े, यात्रा, बाहर का खाना, क़र्ज़ की इन्स्टॉल्मेंट, सब कुछ।
२) फिर एक सोच बनाएँ की आप अपनी कमाई का कम से कम १०% हर महीने बचत कैसे कर सकते हैं।
३) अगर नहीं कर सकते तो ३-६ महीने की योजना बनाओ और कम से कम १०% बचत करना शुरू करो।
फिर देखो २-३ सालों में आपकी आय भी बढ़ेगी, ख़र्चा भी कम होगा और बचत भी रहेगी। नेटवर्थ तो पॉज़िटिव होनी ही है।

डिसेबल्ड ऑनबोर्ड – ड्राइव केयर फ़ुली

किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार

कल एक वाक्या हुआ – ऑफिस से वापस आते समय एक कार दिखी जिस पर लिखा था, “डिसेबल्ड ऑनबोर्ड – ड्राइव केयर फ़ुली।”

मैं थोड़ा ठहर गया। गाडी धीमी कर ली। हॉर्न नहीं बजाया या साइड लेने की कोशिश नहीं की। कुछ समय उनके पीछे चलता रहा। अगले मोड़ पर उन्होंने मेरे तरफ़ देखी और मुस्कुरा दिया और मेरे भी चेहरे पे मुस्कान बिखर गयी।फिर, मन में एक ख्याल आया – कितने लोग होंगे जिनके मन के अंदर कुछ दर्द होंगे, जिनके शरीर में पीड़ाएँ होंगी, एक चाह होगी की कोई मेरी बात सुन लेता, एक इच्छा होगी की कोई मेरा दर्द बाँट लेता।

तो फिर हमें एक साईन बोर्ड की क्यों जरूरत पड़ती है, क्या इंसान को एक साईन बोर्ड डालनी शुरू कर देनी चाहिए? क्या हम कुछ पल यूँही ठहरकर किसी का दर्द सुन या समझ नहीं सकते। क्यों हम इंसान दूसरे के आँखों में लरजते आंसू को देख और पोछ नहीं सकते।

क्यों नहीं? जरा सोचियेगा।

घर आपका या भगवान का

आगंतुकः क्या आपने घर में भगवान नहीं रखे हैं?

गृहस्वामीः (कोने में भगवान के फ़ोटो के तरफ़ इशारे करते हुए) “नहीं नहीं… हमारे घर में भगवान हैं जी।”

आगंतुकः “आपने घर लेने से पूर्व ज़रूर भगवान से मन्नत माँगी होगी? आपने ज़रूर पहले भगवान को बुलाया होगा और पूजा की होगी। तो अगर आपको भगवान के मन्नत से घर मिली है और भगवान को सबसे पहले बुलाकर स्थापना पूजा किया है तो घर तो भगवान का हुआ जिसमें आप रहते हैं। तो कहिए ना कि हम भगवान के घर में रहते हैं?

अनमोल वचन

किसी भी व्यक्ति के गुण दोष की आलोचना करने से परहेज करें। हमारा काम सिर्फ सेवा करना है। कर्मो का निर्णय करना नहीं।

किसी को कभी भी अगर आपकी सेवा की आवश्यकता हो तो अवश्य करें।

आपके बारे में दूसरा क्या सोचता है इसकी चिंता करने की जगह अपने विचार इस पर केंद्रित करें की आप अपने मनोबल का विकास करें, अपने दृष्टि में खुद ओ अच्छा महसूस करें, बड़ा बने। महान बने।

दुसरो की बातें सुनें, उसपर विचार करें, सोचे और ठीक लगे तो उसे मानने में हिचक मत करें।

सब का सम्मान करें, पर खुद को भी सम्मान मिले ऐसी अपेक्षा मत रखें।

उपकार के बदले उपकार की उपेक्षा करना वाणिज्य होता है। उपकार करने वाले कभी बदले की आशा नहीं रखते।

स्पष्ट बोलो। सत्य बोलो लेकिन कटु सत्य जो किसी के भावना को दुःख पहुंचाए उससे यथासंभव परहेज रखो।

जरा ठहर जाओ, विश्राम तो कर लो

क्या आपने कभी विश्राम किया है?
भगवान शिव क्षीरसागर से निकले हलाहल का पान कर लिए। पीने के बाद देवता लोग आए और पूछे,”प्रभु आपने विष का पान किया तो आपको डर नहीं लगा?”

शिवजी ने पूछा, “यह हलाहल विष कहाँ से आयी?”
देवता बोले, “समुद्र मंथन से।”
शिवजी ने पूछा, “समुद्र मंथन किसने किया?”
देवता, “जब सारे देवता थक गए तो सागर के स्वामी भगवान विष्णु ने स्वयं।”
शिवजी, “तो आप समझो – भगवान विष्णु स्वयं ही इसे पी लेते लेकिन उन्होंने मेरे पास भेज दिया। मैं तो राम राम जाप रहा था और उन्होंने विष भेज दिया। मैं तो इसे मेरे राम का प्रसाद समझकर पी लिया और विश्राम पा लिया।”

तो आपके पास जो भी है, जो भी आए उसे भगवान का प्रसाद समझ कर पान कर लीजिए, सहजता से विश्राम की अवस्था में सदैव रहेंगे।

बुद्धिमान व्यक्ति विषयों के संयोग से होने वाले सुख या दुख में मन नहीं रमाते

श्रीकृष्ण कहते हैं: “इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होनेवाला सुख आदि अंत वाले और दुःखके कारण हैं। अत: बुद्धिमान पुरुष उनमें मन नहीं रमाते।”

आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा और मन ये छह इंद्रियाँ सतत ही विषयों का भोग मिले इसके लिए लालायित रहते हैं बिलकुल मोबाइल फ़ोन के अंटेना की तरह बल्कि उससे भी तीव्र। अगर विज्ञान की भाषा से देखें तो इनकी ग्रहण शक्ति बाक़ी सारे अंटेनाओं से काफ़ी ज़्यादा हैं। आँख देखने के लिए, कान मधुर वचन सुनने के लिए, नाक सुगंध के लिए, जिह्वा स्वादपूर्ण भोजन के लिए, त्वचा स्पर्श के लिए तो मन भोग विलास मय विचारों में  लीन रहने के लिए।

ज़रा सोचिए — आपको रसगुल्ला खाने की इच्छा है, सामने रसगुल्लों से भरा प्लेट आ जाए। आप को ५ १० रसगुल्ले तो बड़े अच्छे लगेंगे लेकिन आपसे १०० रसगुल्ले खाने को कहा जाए तो वह सुख देने वाला होगा या दुःख? इसी तरह, आपका प्रेमी आपसे एक दो बार “आई लव यू” कहने की जगह हार २ मिनट में “आई लव यू कहना शुरू करदे तो आप तो पागल ही जो जाओगे ना। 

इसीलिए श्रीकृष्ण यहाँ चेताते हैं की बुद्धिमान पुरुष इंद्रियों और विषयों के भोग से प्राप्त होने वाले स्थिति में मन नहीं रमाते। आप क्या कर रहे हैं? सोचिएगा।

खुशहाल जीवन के लिए सात बातें दिमाग में बैठा लेने जैसी

खुशहाल जिंदगी चाहते हो?
ये 7 बातें दिमाग में बैठा लो!

१. मुस्कुराओ इसलिए नहीं की तुम दूसरों को खुश दिखो, खुश रहो ताकि मुस्कुराहट नेचुरली होठों पर बनी रहे।

२. जितना दक्ष बनोगे उतना ही ज्यादा धन धान्य और संपदा के स्वामी बनोगे।

३. जितना लोनली रहोगे सोशल मीडिया से उतना ही ज्यादा एडिक्टेड हो जाओगे।

४. नेगेटिविटी को जितना दबाओगे तुमपे उतना ही ज्यादा हावी होता जायेगा।

५. किसी भी इंसान को अगर हद से ज्यादा चाहोगे तो वो ज्यादा भाव खायेगा और दूर भागेगा।

६. अगर लोगों के लिए ज्यादा उपलब्ध रहोगे तो तुम्हारी कदर उतनी ही कम होती जायेगी।

७. तुम जैसे जैसे प्रभावशाली होते जाओगे लोगों से तुम्हारा व्यवहार उतना ही कटु होता जायेगा और दूर होते चले जाओगे।

स्वावलंबी

बचपन में मेरा घर मिट्टी का था। जब मैं शायद पांच या छः साल का था तो तेज बारिश और बाढ़ जैसी स्थिति आने के कारण घर ढह गया। हमें मजबूरन मवेशी वाले घर में रहना पड़ा। पिताजी और मां ने मिलकर एक चौकी के ऊपर दूसरी रक्खी और हम किसी तरह बारिश से बचाव कर रहे थे।

उस समय खाना मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी से पकाई जाती थी। हमारे चूल्हे, लकड़ी अनाज सब नष्ट हो चुके थे।

मां ने चिंता जाहिर की: “बच्चे भूखे हैं। मैं जाकर परोस से कुछ उधार लेकर पका लें आती हूं।”

पिताजी ने टोक दिया: “क्या इतने वर्षों के दांपत्य जीवन में आपको कभी किसी से मांगने की जरूरत पड़ी है?”

मां ने सिर हिलाकर नकार दिया।

“आज एक दिन अगर मांग लेंगे तो जिंदगी भर सुनना पड़ेगा। लोग कहेंगे पुरा परिवार खत्म हो गया होता अगर हमने खाना नहीं बनाने दिया होता।” पिताजी ने फिर कहा।

“बच्चे भूखे हैं।” मां ने थोड़ी भारी आवाज में जवाब दिया।

“नमक चाटकर और एक ग्लास पानी पी लेने से भी भूख मिट जाती है। मैंने विद्यार्थी जीवन में कई बार ऐसा किया है। जैसे ही बारिश थमेगी, मैं जाकर दूसरे गांव के दुकान से खाने का सामान खरीद कर ले आऊंगा।”

हम भूखे ही बारिश थमने का इंतजार करते रहे। कुछ घंटों में बारिश थमी और पिताजी जल्दी से जाकर खाने का सामान ले आए। कुछ दिनों के बाद पक्के की मकान बनाने का कार्य भी शुरू हो गया। फिर, हम पक्के के मकान में रहने लगे और दुबारा बारिश या बाढ़ के कारण भूखा रहना पड़ा हो ऐसी नौबत भी नहीं आई।

उस दिन हमारे मानस पटल पर यह विचार जरूर अंकित हो गया की “मांगना, उधार लेना और चुराना हमारे लिए तो कतई ही नहीं है। अगर ऐसा किया तो मेरे पिता के अप्रतिम सीख का निरादर होगा और उनके आत्मा को दुख पहुंचेगी।”

भटकाव, ठहराव, बदलाव

कल एक सज्जन से मिला, जो जिंदगी की परेशानियों से पिछले कुछ सालों से संघर्ष कर रहे थे और काफी जद्दोजहद के बाद अब अपने आप को थोड़ा उबरा हुआ महसूस कर रहे हैं।

“आप सब की कृपा, सुझाव, प्रोत्साहन, योग और मेडिटेशन के वजह से अब मैं ठीक महसूस कर रहा हूं।” इन शब्दों से उन्होंने अपनी मानसिक स्थिति को जाहिर किया।

मेरा भी मन बहुत ही प्रसन्न हुआ। मैंने तुरंत ही उनसे कहा:

“आपने जो स्वयं के ऊपर काम किया है, यह ठहराव लाया है यह अवश्य ही सराहनीय है।

हमारी व्यथा का जड़ ही यही है कि हम अकारण बल्ब जलाकर राख लेते हैं और मान लेते हैं के ये हमेशा प्रकाशित ही रहेंगे।

हम सोच लेते हैं कि अपने तो सदा ही अपने ही रहेंगे। यह भूल जाते हैं कि हमारा असली जुराब तो सिर्फ स्वयं से है बाकी सब तो छलावा है।

अब आपको बदलाव के तरफ बढ़ना है। आपने मानसिक अवस्था को और सुचारू करनी है। स्वयं के लिए थोड़ा सा जीना है। खुश रहना है। व्यवस्थित रहना है। व्यवहारिक होना है। वास्तविक होना है।”

वो मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए।

भाव पे न टिकने वाले को दुकानदार समान नहीं देता तो भाव न होने वालों को हरि कैसे मिले

भाव बिना बाजार में वस्तु मिले नहीं मोल।
बिना हरी कमजोर भाव सहित हरी बोल।।
आज नज़र पर गयी कबीर के इस दोहे पर और एक कहानी याद आ गया। एक आदमी पत्नी से बोला की मैं बाज़ार जा रहा हूँ।
पत्नी बोली “बाज़ार जा रहे हो तो कुछ अच्छा दिखे तो ख़रीद लेना और ठग मत जाना बाज़ार में काफ़ी सारे ठग बैठे रहते हैं।”
पति बाज़ार पहुँचा और उसे एक छाता दिखा जो उसे पसंद आ गया। उसने दुकानदार से भाव पूछा।
दुकानदार ने कहा “200 रुपए”
पति को पत्नी की सलाह याद आ गया “उसने कहा 100 का दोगे।”
दुकानदार समझ गया की ग्राहक समझदार है, उसने कहा 160 का दूँगा।
वह समझ दुकानदार बहुत बड़ा ठग है उसने तुरंत भाव बदल दी, कहा 80 का दोगे?
दुकानदार ने कहा 10 का दूँगा।
ग्राहक ने कहा 40 का दोगे।
दुकानदार ने कहा मुफ़्त का ही लेलो
ग्राहक ने कहा फिर तो दो ले लूँगा।
और उसे दुकानदार ने छाता नहीं दिया।
अगर भाव पे न टिकने वाले को दुकानदार समान नहीं देता तो भाव न होने वालों को हरि कैसे मिल सकता है। तो अगर हरि चाहिए तो सम्पूर्ण भाव से पुकारो। ज़रूर ही मिलेंगे।

जो है उसकी रक्षा और जो नहीं है उसकी पूर्ति 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।
यह श्लोक भगवान् कृष्ण के तरफ़ से एक आश्वासन हैं कि यदि मनुष्य एकमात्र मेरा चिंतन कर ले तो उसके पास जो है उसका मैं रक्षा कर देता हूँ और जो नहीं है उसका उपाय भी।
मैं जब भी इस श्लोक को पढ़ता हूँ तो बचपन में सुनी हुई एक कहानी याद आ जाती है।
एक भागवत गीता में प्रकाण्ड पंडित लोगों को घूम घूम कर गीता प्रवचन करता रहता। एक दिन वो राजा के दरबार में इसी श्लोक पर प्रवचन कर रहा होता है और तरह तरह के उदाहरणों और व्याख्याओं से लोगों को इस श्लोक का अर्थ और भाव समझा रहा होता है। तभी राजा पंडित को टोक देता है, “ओ पंडित जी, मुझे लगता है आपको स्वयं ही इस श्लोक का अर्थ पता नहीं है, आप पहले खुद इसका अर्थ ठीक से समझिये और फिर कल आकर हमें ठीक तरह समझाइये। “
यह सुनकर पंडित व्यथित हो जाता है और उदास भी। वह अपने घर चला जाता है। पत्नी परेशानी समझ जाती है और पूछ बैठती है, “क्या बात है? आज आप ठीक नहीं लग रहे। क्या परेशानी है जो आप के मन को व्यथित कर रही है? “
पंडित सारी वृतांत पत्नी से बताता है। पत्नी भी राजा के विचार से सहमति जताती है और पूछती है, “राजा बिलकुल सही हैं, आप स्वयं तो इस श्लोक का परिचारण नहीं करते। आप बताइये, आप राज दरबार क्यों जाते हैं?”
पंडित, “ताकि मेरी कथा सुनके राजा और प्रजा प्रसन्न हों, मुझे दक्षिणा दें और मैं परिवार का सही संचालन कर सकूँ। “
पत्नी, “तो क्या आपने भगवान पर भरोसा किया?”
पंडित को बात समझ में आ जाती है, वह इस श्लोक पर मनन करने के पश्चात् निश्चय करता है की वो राजा के दरबार में कल नहीं जायेगा। सिर्फ श्रीकृष्ण आराधना ही करेगा ऐसा मन बना लेता है। अब कृष्ण की जैसे मर्जी वो वैसे ही रह लेगा।
अगले दिन राजा पंडित को दरबार में न पाकर अपने दूत को पंडित के घर भेजता है और पंडित दरबार में जाने से मन कर देता है, “राजा से कह देना मैंने श्लोक का अर्थ समझ लिया है और अब में खुद को श्रीकृष्ण पूजन मनन व चिंतन में समर्पित कर दिया है। “
राजा दूत की बात सुनते ही नंगे पाँव पंडित के पास पहुंचता है, उसके चरणों में गिर जाता है और उसे अपना गुरु बना लेता है।
आप भी स्वयं को भगवान् के चिंतन मनन में एक बार कुछ दिनों के लिए ही सही लगा के तो देखिये। कुछ समय श्रीकृष्ण भाव के साथ ज़िंदगी जी कर तो देखिये।
एक तू ही भरोसा, एक तू ही सहारा, अब तेरे सिबा कोई न दूजा हमारा। मैं बस तुम्हारा चिंतन करूँ फिर मुझे किस बात की चिंता – हे कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वसुदेवाय।

स्मृतियाँ: चैंपियन वाली शरीर, चुस्ती, स्फूर्ति एवं साहस

अप्रैल मई महीने की धूप और गर्मी काफी भयावह होती है — डिहाइड्रेशन और लू लगने का खतरा हमेशा सिर पर मंडरा रहा होता है। खास करके बिहार प्रदेश जहां पर मेरा जन्म हुआ था। जरा सोचिये, ऐसी धूप और गर्मीं के दोपहरी में आप एक छोटे बच्चे को साइकिल के पीछे दौड़ते हुए पसीने में लथपथ देखें तो आपको कैसा लगेगा?

बात उन दिनों की है जब मैं तीसरी या चौथी कक्षा में पढता था। मेरी प्राथमिक कक्षा की पढाई लालपुर विद्यालय, जहां मेरे पिताजी शिक्षक थे वहीं से हुई थी। मेरे पिताजी औसतन 10 किमी प्रति घंटे के रफ़्तार से साइकिल चलते थे। वो मेरा स्कूल बस्ता साइकिल के कैरियर पर रख देते और मैं उनके साइकिल के पीछे पीछे दौड़ता हुआ घर वापस आता।

एकदिन कड़ी धुप और गर्मी वाली दुपहरी में मैं पीछे पीछे दौड़ रहा था और पिताजी साइकिल से आगे की तरफ बढ़ रहे थे। तभी एक शिक्षक दूसरी तरफ से आ रहे थे। उनकी नज़र मेरे ऊपर पड़ी तो उन्होंने साइकिल रोक ली और जोर से आवाज लगाते हुए डांटने की मुद्रा में मेरे पिताजी से बोले : “आप इतने निर्दयी इंसान तो नहीं हैं कि इतनी बेरहमी से पेश आएं। आपका बच्चा पसीने से लथपथ है, जोड़ जोड़ से साँसें ले रहा है और उसका चेहरा भी लाल हो गया है। फिर भी, आप उसे यूँ पीछे पीछे दौड़ाये चले जा रहे हैं।”

पिताजी ने जवाब दिया: “आज तो मैं लिफ्ट दे दूंगा परंतु, बाकी के जिंदगी भर तो उसे स्वयं ही ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। उस वक़्त न ही तो मैं देखने वाला होऊंगा न ही सँभालने वाला। लेकिन, आज अगर वह परिश्रम से शारीरिक क्षमता का विकास कर लेता है तो सारी उम्र अपने मजबूत पाँव और शरीर के बल लम्बी जीवन पथ पर चलता रहेगा। मुझे इसे लम्बी रेस का घोडा बनाना है और तन और मन से इतना मजबूत की जिंदगी की चुनौतियों का डटकर सामना कर सके। मुझे इसे चैंपियन वाली फौलादी शरीर, स्फूर्ति, ताकत और साहस से परिपूर्ण बनाना है न की एक सामान्य इंसान।”

मैं पसीने से लथ पथ पिता जी के पीछे पीछे दौड़ता रहा। उस समय यह बात बिलकुल ही समझ में नहीं आयी और काफी हद तक बेमानी भी लगी क्योंकि यह पता ही नहीं था की चैंपियन क्या होता है।

आज जब मैं यह वाकया स्मरण कर रहा हूँ और यह लेख लिख रहा हूँ तो मुझे अच्छी तरह से समझ में आ रहा है कि मेरे पिता के सानिध्य में बिता वर्ष इसी भावना से उत्प्रेरित थे की मैं कठिन परिश्रम, सम्पूर्ण समर्पण, और परिपूर्ण मन स्थिति को विकसित करें जिससे की जिंदगी में मैं जो भी करूं उसे सही तरीके से करूं और जीवन जीने के काबिल बन जाऊं।

पिता द्वारा दिए गए ट्रेनिंग और शिक्षा का ही परिणाम है कि मैं आज भी पुष्ट आहार, 7 से 8 घंटे की नींद, नियमित व्यायाम, योग और मेडिटेशन के माध्यम से एक स्वस्थ जीवनचर्या का परिचालन कर रहा हूँ। और जब भी जिंदगी में कठिन परिस्थितियां आयी तो मन नहीं घबराया बल्कि एक सही सोच, समझ, फोकस, और सकारात्मक प्रेरणा लेकर कठिनाइयों और समस्याओं से निबट पाया।

जितने भी मोटिवेशन और व्यक्तित्व विकास के ट्रेनिंग हैं वो सब इसी पर केंद्रित हैं की आप चैंपियन वाली मनस्थिति का विकास कर पाएं, आप शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को सुदृढ़ कर सकें, समस्याओं से संधि नहीं बल्कि संघर्ष करके जीत हासिल करें और जिंदगी को श्राप न समझकर आपके लिए कुछ कर गुजरने का सर्वोच्च अवसर समझ कर जीवनपथ पर अग्रसर होते रहें।

मुझे यह सब बचपन के ही दिनों में मेरे पिता से मिल गया। आज जब मैं वर्कशॉप और ट्रेनिंग करता हूँ तो बचपन में सीखे हुए उन्हीं नुख्स के प्रयोग के लोगों को प्रेरित करता हूँ और वाहवाही बटोरता हूँ।

संस्कृत के ज्ञाता और शिक्षक होने के कारण मेरे पिता को यह पता था की जो माता–पिता अपने बच्चों को पढ़ाते नहीं है ऐसे माँ–बाप बच्चो के शत्रु के समान है. विद्वानों की सभा में अनपढ़ व्यक्ति कभी भी सम्मान नहीं पा सकता वह वहां हंसो के बीच एक बगुले की तरह होता है.

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ! न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा !!

उनके सानिध्य में बचपन में ही पचपन वाला ज्ञान और तकनीक पता चल गया जिसके बलबूते मैं आज इस मुकाम तक पहुँचा हूँ। आज बस इतना ही….

स्मृतियाँ: शुभारंभ

जहाँ तक मुझे स्मरण है, मेरे बचपन के काफी सारे वक़्त मेरे पिता के संसर्ग में ही बिता। जब मैं छोटा बच्चा था तो अपनी गोदी में बिठा लेते या फिर अपने पास चौकी पर। फिर संस्कृत के श्लोक मुझे रटाते और याद करवाते ही रहते। हाँ कभी कभी गणित के पहारे, हिंदी के वर्ण एवं अक्षर भी। 1970 के दौर में बोल कर और याद कराके पढ़ाने की प्रक्रिया काफी प्रचलित थी. कॉपी, कलम एवं स्याही खरीदना सबके वश की बात नहीं होती थी। और, जिनके वश में होती भी थी वो थोड़ा सोच समझकर ही उपयोग करते थे क्योंकि आपूर्ति सिमित मात्रा में होती थी।

दो संस्कृत के श्लोक जो मैंने सबसे पहले सीखे थे:

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देव देव ।।

तुम ही माता हो, तुम ही पिता हो, तुम ही बन्धु हो, तुम ही सखा हो, तुम ही विद्या हो, तुम ही धन हो। हे डिवॉन के भी देव! तुम ही मेरा सब कुछ हो।

परमात्मा के पूर्णमय, सर्वव्यापी स्वरूप से परिचित कराता यह श्लोक हरेक भारतीय हिन्दू को कंठस्थ ही रहता है।

और दूसरा श्लोक:

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॥

सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय हो और कोई भी दुःख का भागी न बने।

परमात्मा के सर्व रूपमय, सम्पूर्ण जगत का परमात्मामय होने की अनुभूति और समस्त जड़ चेतन के सुखी, स्वस्थ, मंगल एवं समृद्धि की कामना को अग्रसारित करता यह दोनों श्लोक मेरे जीने का आधार सा बन गया।

इन्हीं श्लोकों से यह भाव भी मन में आ गयी कि जो भी होता है या हो रहा है वह ठीक ही है। जो भी बातें हैं सभी अच्छी ही हैं। जो कुछ भी आप कर रहे हो वो सपने को हकीकत में बदलने का एक प्रयास है — यदि हो गया तो सच नहीं तो सपना। मैं कदाचित यह नहीं कहता कि मुझमें स्वार्थ भावना जागृत नहीं होती या मेरा हर प्रयास दूसरों के भलाई के लिए ही समर्पित है परन्तु मैं हमेशा इस बात का ख्याल रखता हूँ कि मेरे कार्य से किसी को नुकसान का सामना न करना पड़े।

मुझे पिता जी ने सैकड़ों मन्त्र याद करवा दिए जिनका मैं आगे के लेखों में उल्लेख करता रहूँगा और जिनसे बहुत कुछ सिखने समझने को मिलती है — खास कर उन क्षणों में जब आप जीवन में निर्णायक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। संस्कृत के मंत्र घनघोर अँधेरे में प्रकाश बनकर की तरह मेरा मार्ग प्रशस्त करते हैं.

जब तब पिता द्वारा अनथक प्रयास के द्वारा संस्कृत एवं संस्कृत श्लोकों का सीखना मुझे काफी बोरियत वाली बात लगती थी। लेकिन, आज जब मैं लोगों के बीच उन्हीं श्लोकों का उल्लेख कर कुछ विचार रख देता हूँ तो लोग सहमत भी हो जाते हैं और उनके मन में मेरे लिए श्रद्धा और प्रेम भी जागृत होती है।

स्मृतियाँ मेरी एक कोशिश है की जीवन पथ पर चलते हुए मैंने जो सीखा है, जाना है, अनुभव किया है और जिन वाकयों ने मेरे जीवन को उत्प्रेरित और प्रभावित किया है उसे साझा करूँ। इसे लिखने का कतई यह मतलब नहीं है कि यह आपको पसंद ही आये या आप इससे प्रभावित ही हों।

मेरा यह प्रयास तुलसीदास के “स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा” दोहे से उत्प्रेरित है। मैं एक प्रयास कर रहा हूँ कि जब भी मैं फुर्सत के क्षणों में पढूं तो मैं जिंदगी को महसूस करूँ। परमात्मा के असीम कृपापात्र होने का गर्व कर सकूं। साथ में अगर आपको अच्छा लगा और कुछ सिखने समझने को मिला तो इसके परमात्मा का उद्गार और चमत्कार समझूंगा।

श्री कृष्ण अर्पणमास्तु

एक छोटा सा बच्चा है। माँ अपने छाती से लगा लेती है बच्चा माँ का दूध पीने लगता है। माँ मातृत्व के आनंद से आनंदित हो जाती है – जैसे उसके लिए मातृत्व से बड़ा कोई सुख ही नहीं हो। एक बच्चा माँ के दूध पर शंका नहीं करता। इसीलिए माँ के रूप में हमें ईश्वरियता से प्रथम साक्षात्कार होता है । आप कितने भी दुःख में हो, माँ का आँचल अगर दो घड़ी के लिए मिल जाए तो शूकूँ आ ही जाता है।

आज कल लोग ईश्वर पर शंका बहुत करने लगे हैं। ईश्वर में भावना की जगह व्यावहारिकता को ज़्यादा खोजने लगे हैं । समर्पण की जगह लॉजिक ने ज़्यादा ले ली है।
मुझे बचपन में सुनी एक कहानी याद आ रही है – एक स्त्री अपने हर काम श्री कृष्ण को समर्पित कर देती। यहाँ तक कि घर को गोबर से नीपती और बचे हुए गोबर श्री कृष्ण अर्पणमास्तु कह के घर के बाहर फेंक देती। वह गोबर सीधा गाँव के मंदिर में स्थापित भगवान कृष्ण के मूर्ति के चेहरे पर जा गिरता। पुजारी बहुत परेशान। हर दिन उसे भगवान के चेहरे की सफ़ाई जो करनी पड़ती।

वह स्त्री बीमार पड़ गयी और जब मृत्यु का समय आया वो श्री कृष्ण अर्पणमास्तु कह कर प्राणत्याग दी। तुरंत मंदिर के भगवान की मूर्ति भी टूट गयी। फिर उस स्त्री को लेने के लिए स्वर्गलोक से विमान आया। वह विमान मंदिर से टकरा गया और मंदिर भी टूटकर गिर गया।

यह कहानी इस बात का परिचायक है की भक्त जब अपना सर्वस्व भगवान को समर्पित कर देता है तो भगवान उसे स्वयं से भी ऊपर उठा देते है। एक बार बिना किसी लॉजिक के भगवान को समर्पण तो करके देखो, एक बार सर उठाकर उसे श्री कृष्ण अर्पणमास्तु कहकर अपने को उसके हवाले करके तो देखो। प्रश्न अपने आप सुलझ जाएँगे। मीरा के ज़हर अमृत में तब्दील हो गए, द्रौपदी की लाज बच गयी, ध्रुव के प्राण बच गए, और गज़ की रक्षा हो गयी। तो आपका भी हो जाएगा।

Business Planning Bootcamp @ Udyogwardhini, Nasik

Yet another full-day “Buisness Planning Bootcamp” was conducted by us at Udyogwardhini, Nasik on 1st December 2019 addressing entrepreneurs from various industries on how to scale-up their businesses and strategies to increase their revenue.

Photo: Mr. Ishwar Jha setting the pitch for the Bootcamp

Photo: Participants involved in an activity during the planning bootcamp

Photo: One of the participant presenting their business model

Business Planning Bootcamp @ BAM, Mumbai

Businessmen’s Association of Maharashtra (BAM) had invited us to conduct full-day session on “Business Planning Bootcamp” on 27th June 2018. Giving an insight into the business models of the startups led us to interact with them in a better manner to address the problems being faced by start-ups in running and scaling their business.

Photo: Participants casting their votes on how they feel about the current state of business

Photo: Mr. Ishwar Jha interacting with the business owners

Photo: Participants involved in an activity during the bootcamp

Photo: Mr. Ishwar Jha being felicitated

Business Planning Bootcamp @ TiE, WeWork, Mumbai

We conducted a-day long session of “Business Planning Bootcamp” for TiE Charter Members in Mumbai at WeWork on 14th July 2018. The bootcamp was designed to address the issues that the strt-ups face at the initial stages of their business, followed by the searching the business model and scaling up their revenue.

Photo: Mr. Ishwar Jha addressing the participants in the opening session

Photo: Mr. Ishwar Jha having one-to-one interaction with the participant

Photo: Participants involved in meditation activity to separate signal from noise

Photo: Participants involved in defining their business model

Idea to IPO Workshop @ NASSCOM, Technology Club & IT Ministry Govt.- Goa

Another workshop on “Idea to IPO” at TAJ Vivanta Goa organized by Goa Technology Club supported by IT ministry GOA and NASSCOM for emerging entrepreneurs conducted by Mr. Ishwar Jha, kickstarted on Friday 16 Feb 2018.

 

Idea to IPO Goa by Ishwar Jha

 

Photo: The association brings together more than 40 entrepreneurs from various sectors and in all stages.

Emerging Entrepreneurs

 

During the workshop, Mr. Jha shared the secrets of building IPO ready company. The content shared during the workshop was extremely relevant, battle-tested and real stuff – so that one doesn’t need to go through the growing pain that many others are struggling with.

 

Photo: Entrepreneurs engaged in activities – Drafting their plans to fuel their ideas.

IPO Ready buisness

Idea to IPO Workshop @ Saturday Club, Thane Chapter

More than 80 entrepreneurs of Saturday Club, Thane Chapter joined on 16th August 2017 to understand the journey to build their business from Idea to IPO. Live business case study of one of the startups was taken as a case example to understand the Business Model Canvas and the winner was presented with free “Zero to One Crore” workbook. The business owners were able to examine the challenges faced in shaping their business and also explore ways of defining new market opportunities.

Photo: The startup journey approach being shared by Mr. Ishwar Jha

idea to ipo saturday club thane

 

Photo: Attendees participating in workshop activity “Self Agreement”idea to ipo saturday club thane

 

Photo: Participants having discussion on their business ideaidea to ipo saturday club thane

 

Photo: Winner of Business Ideaidea to ipo saturday club thane

Zero to One Crore Workshop @ NMIMS, Mumbai

Around 50+ attendees gathered for our “Zero to One Crore” workshop held at NMIMS, Mumbai on 31st July 2017 to understand the journey of a startup organization and using live case studies to solve the Lean Canvas. The teams were excited to present their ideas to the panel of judges examining the problem, likely solution and working on the financial projections to get a better understanding of the conceptual knowledge shared with them during the session.

Photo: Mr. IShwar Jha having on-to-one interaction with the participantszero to crore nmims mumbai

 

Photo: Participants presenting the The Lean Canvaszero to crore nmims mumbai

 

Photo: Mr. Ishwar Jha presenting the certificates and cash prize to the winnerszero to crore nmims mumbai

 

Photo: Group photo with the participantszero to crore nmims mumbai

Zero to One Crore workshop @ IES Management College & Research Centre, Mumbai

On 20th June 2017, IES Management College & Research Centre, Mumbai invited us to conduct our “Zero to One Crore” workshop as a part of their Orientation program with 70+ participants. The audience consisted of both freshers and students with work experience. Out activity driven workshop enabled them to interact with each and break the ice thereby making them to think of pursuing entrepreneurship a career option. This college also runs a separate program with Entrepreneurship as a specialization.

Photo: Mr. Ishwar Jha addressing the participants with his motivational talkzero to crore ies mumbai

 

Photo: Students listing down their priorities during one of the workshop activitieszero to crore ies mumbai

 

Photo: Students sharing their business ideas with the audiencezero to crore ies mumbai

 

Photo: Winner of Cash Prize for “Business Idea” activityzero to crore ies mumbai

Launch Your Career Workshop @ Sathaye College, Mumbai

It gave us immense pleasure to conduct “Launch Your Career” workshop for BMS, B.Com and B.Sc. students of Sathaye College on 5th June 2017. Addressing 250+ students in back-to-back session of 2 batches gave us an opportunity to help these students identify the right career opportunities and make them focus on their life and career goals at the very start of their academic year.

Photo: Mr. Ishwar Jha opening the session with an inspirational talk

launch your career sathaye

 

Photo: Meditation session conducted during the workshop

launch your career sathaye

 

Photo: “Grass Met God” activity conducted by Mr. Ishwar Jha during the workshop

launch your career sathaye

 

Photo: Feedback being shared by a student at the end of the workshop

launch your career sathaye

Zero to One Crore Workshop @ 91Springboard, Mumbai

Conducting “Zero to One Crore” workshop at 91Springboard, Mumbai led us to interact with startups from varied verticals of business looking to build, launch and expand their startup venture to turn their ideas into reality. There were also some budding entrepreneurs from top b-schools attending this workshop to learn our 6-step process to launch and run a startup successfully.

Photo: Participants involved during the session
zero to crore 91springboard mumbai

 

Photo: Ishwar Jha having one-to-one interaction with the participants
zero to crore 91springboard mumbai

 

Photo: Conducting “Top 25 Must Haves for their business” (Activity) with the participants
zero to crore 91springboard mumbai

Zero to One Crore Workshop @ Vidyavardhini’s College of Engineering and Technology, Mumbai

We conducted our “Zero to One Crore” workshop for 125+ students during VCET E-cell Event. It was great to see the student’s deep involvement in learning and applying conceptual knowledge during the workshop with live case studies given to them on the spot. We were very glad to see the students participate, discuss and come up with solutions to the case problems with the help of Lean Canvas Model.

Photo: Ishwar Jha conducting the Opening Session and setting the stage
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Photo: Meditation Activity being conducted by Ishwar Jha
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Photo: Students involved in discussion of Lean Canvas
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Photo: Students presenting Lean Canvas to the Judges
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Photo: Group photo with the students
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Zero to One Crore Workshop @ Sardar Patel Technology Business Incubator, Mumbai

It was a different experience addressing the students of Sardar Patel Technology Business Incubator. It helped the students get an understanding of business focus, how to develop their dream company and finally scaling for growth.

Photo: Meditation session being conducted before the start of the workshop to get the focus right
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Photo: Ishwar Jha having one-on-one interaction with students
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Group Photo of Ishwar Jha with the students at SP-TBI
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Zero to One Crore Workshop @ Product Conclave, NASSCOM 10000 Startup, Pune

It was a pleasure to conduct yet another session of our Zero to One Crore Workshop at The Product Conclave, NASSCOM 10000 Startup, Pune. Had a very humble experience to address 70+ entrepreneurs looking to either launch their start-up or expand their existing business.

Group Photo of Ishwar Jha with participants at Product Conclave, NASSCOM Pune.

Zero to One Crore Workshop @ KES Shroff College of Arts and Commerce

We conducted our Zero to One Crore Workshop for the Final Year students at KES Shroff College and were overwhelmed to see the enthusiasm and the engagement level of the students to learn about entrepreneurship and launching techniques of business.

Photo: Participants involved in “Promise Note” Activity
zero to crore kes shroff

 

Photo: Ishwar Jha conducting an activity during the workshop
zero to crore kes shroff

 

Photo: Students engaged in the “Balloon Activity” as a part of the closing sessionzero to crore kes shroff

 

Photo: Group Photo of Ishwar Jha with the participants

Launch Your Career Workshop @ Banasthali Vidyapeeth, Rajasthan

We conducted our “Launch Your Career” workshop at Banasthali University in the presence of 120+ MBA students on how to kick start your career and be successful by making right moves in every sphere of your work/ life. The enthusiasm and energy levels of these young students by actively participating in the workshop and its activities was amazing.

Photo: Opening talk of the program by Mr. Ishwar Jha

zero to crore banasthali vidyapeeth

 

Photo: Participants involved in “Burn your worries” activity

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Photo: Ms. Garima Agarwal conducting a session on “Image Management”

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Photo: Participants preparing their goal sheets aligned with their career skills

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Photo: One-to-One Question Answer session addressing the participant’s career aspirations

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Zero to One Crore @ Banasthali Vidyapeeth

It was an overwhelming experience to interact with 75+ students at Banasthali Vidyapeeth, Rajasthan for our “Zero to One Crore” workshop on 18th November 2016. Many of them were looking to start their own venture and getting their ideas validated through this workshop enabled them to think deeply once again on their concept and ground work involved in setting the business system and process.

Photo: Participants presenting their ideas on Business Model Canvas

zero to crore banasthali vidyapeeth

 

Photo: Ishwar Jha addressing the participants during the workshop

zero to crore banasthali vidyapeeth

 

Photo: Winner of “One day Business Launch Plan evaluation and validation” with Mr. Ishwar Jha was Himanshi Chauhan.

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Photo: Group photo of Ishwar Jha with the participants

zero to crore banasthali vidyapeeth

Idea to IPO @ KJ Somaiya Institute of Management Studies

We conducted our “Idea to IPO” workshop at KJ Somaiya Institute of Management Studies on 13th November 2016 with 40+ budding entrepreneurs attending it to gain knowledge of business set-up, growth and expansion. A few students who were looking to pursue their career with corporates found it strengthening their industry concepts and business understanding.

Photo: Participants involved in ice-breaking session activity before the workshop

idea to ipo kj somaiya

 

Photo: Ishwar Jha addressing the participants during the workshop

idea to ipo kj somaiya

 

Photo: Group photo of Ishwar Jha with the participants

idea to ipo kj somaiya

 

Zero to One Crore Workshop @ IIIT, Hyderabad

Our “Zero to One Crore” workshop at International Institute of Information Technology (IIIT), Hyderabad gave me an opportunity, on one hand to interact with entrepreneurs who had come to evaluate their existing model or future of their business venture, and on the other hand with the students who were planning to pursue this entrepreneurial opportunity by learning through our framework and tools.

Photo: Participants engaged in making promise to themselves in “The Promise Note” activity.

zero to crore iiit hyderabad

 

Photo: Winner of “One day Business Launch Plan evaluation and validation” with Mr. Ishwar Jha was Mr. M V L Narayana.

zero to crore iiit hyderabad

 

Photo: Q&A Session with Mr. Ishwar Jha after the workshop

zero to crore iiit hyderabad

 

Video: Participant Feedback about the workshop.

https://youtu.be/Eqy_Kqf1Yzo

Zero to One Crore Workshop @ NASSCOM 10000 Startup Warehouse, Pune

It was a very interactive and thought-provoking session at NASSCOM 10000 Startup Warehouse with 40+ founders from different industries looking to start their own business. I was glad to even meet entrepreneurs who have successfully achieved 1 Cr but feel that their growth is stagnated. They found the workshop very valuable in terms of how to scale-up and grow their business beyond 1 Cr.

Photo: Ishwar Jha addressing the participants during the workshop

zero to crore nasscom startup

 

Photo: Participants involved in writing “The First Tweet” activity to announce their business idea to the world.

zero to crore nasscom startup

 

Photo: Winner being chosen by lucky draw for “One day Business Launch Plan evaluation and validation” with Mr. Ishwar Jha. The winner was Mr. Kalyan Dhokte from Pune.

zero to crore nasscom startup

 

Video: Feedback from the participants about the workshop

https://youtu.be/4KSSEVrslcE

 

Zero to One Crore Workshop @ St. Francis Institute of Management and Research

It was an eye opener for us to see over 150 management students attending our workshop as part of the entrepreneurship nurturing initiative of the St. Francis Institute of Management and Research, Mumbai. I told the participants that you can use the entrepreneurial thinking and the process of launching a startup even if you choose to pursue the career at leading enterprises.

The lucky winner for “One day of business idea launch plan evaluation and validation” worth Rupees 60,000 was Ms. Shialee Vaidya.

Photo: Ishwar Jha interacting with the participants during the workshop

zero to crore fransis institute

 

Photo: Participants engaged in “Burn your worries” activity during the workshop

zero to crore fransis institute

 

Photo: Group photo with Ishwar Jha, management of St. Francis Institute of Management and Research and participants

zero to crore fransis institute

Zero to One Crore Workshop @ CIIE, IIM Ahmedabad

The participating founders felt that the workshop is a well-articulated 5-step process to help them learn the process-driven approach for idea development, business planning and launch their startup.

Here is what the founders had to say about the workshop, their learning and overall experience:

https://youtu.be/P5N6KWkOUPE

We also announced One day of launch plan evaluation and validation session with Ishwar Jha and team worth Rupees 60,000 to one lucky winner. We congratulate Sameer Prakash for winning the prize and look forward to helping him with evaluation, validation and mentoring him to launch his idea.

Photo: Ishwar Jha conducting the “Zero to One Crore” workshop with founders.

zero to crore iim ahmedabad

 

Photo: One-to-one conversation with the participants after the workshop.

zero to crore iim ahmedabad

We were thrilled to notice that the founders felt that the workshop is a comprehensive, process-driven and relevant to them to prepare for striking the entrepreneurial success.