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स्मृतियाँ

मेरे पिता मेरे गुरु मेरे सर्वस्व

पिता स्वर्ग: पिता धर्म: पिता ही परमं तप:।
पितरीप्रतिमपनये प्रियन्ते सर्व देवता।।
पिता तो सभी अच्छे ही होते हैं हर संतान के लिए सबसे सदैब साये की तरह साथ रहने वाला आसमा से भी विस्तृत छाया।

मेरे पिता मेरे गुरु मेरे सर्वस्व। आज जो भी हूँ बस आपकी शिक्षा, आपके मूल्यों औऱ आपके द्वारा निर्धारित किये गए सांसारिक मापदंडों के पथ पर अग्रसर रहते रहने का फल ही तो है।

हर सुबह जब पूजा के आसन पर बैठकर “मातृ पितृ चारणकामलेभ्यो नाम:” कहता हूँ तो इस विश्वास को और बल मिलता है कि आज कल से बेहतर होगा।
मुश्किल कर पल में जब कोई राह नहीं दिखती तो नस यही सोचकर कि आप होते तो क्या सलाह देते यह सोचकर निर्णय ले लेता हूँ आउट सब ठीक ही होता है।

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

श्रीकृष्ण का यह कहना कि “: यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥2/20।” अक्षरशः सत्य ही तो है।

मेरे मन मे मेरे तन मैं मेरे बातो मैं विचारों में आओहि तो हैं ओहिर क्या की नश्वर शरीर को चीर परिचित मुलाकात और व्यवहार का पर्याप्त सुखद  अवसर नहीं मिला।

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स्वावलंबी

बचपन में मेरा घर मिट्टी का था। जब मैं शायद पांच या छः साल का था तो तेज बारिश और बाढ़ जैसी स्थिति आने के कारण घर ढह गया। हमें मजबूरन मवेशी वाले घर में रहना पड़ा। पिताजी और मां ने मिलकर एक चौकी के ऊपर दूसरी रक्खी और हम किसी तरह बारिश से बचाव कर रहे थे।

उस समय खाना मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी से पकाई जाती थी। हमारे चूल्हे, लकड़ी अनाज सब नष्ट हो चुके थे।

मां ने चिंता जाहिर की: “बच्चे भूखे हैं। मैं जाकर परोस से कुछ उधार लेकर पका लें आती हूं।”

पिताजी ने टोक दिया: “क्या इतने वर्षों के दांपत्य जीवन में आपको कभी किसी से मांगने की जरूरत पड़ी है?”

मां ने सिर हिलाकर नकार दिया।

“आज एक दिन अगर मांग लेंगे तो जिंदगी भर सुनना पड़ेगा। लोग कहेंगे पुरा परिवार खत्म हो गया होता अगर हमने खाना नहीं बनाने दिया होता।” पिताजी ने फिर कहा।

“बच्चे भूखे हैं।” मां ने थोड़ी भारी आवाज में जवाब दिया।

“नमक चाटकर और एक ग्लास पानी पी लेने से भी भूख मिट जाती है। मैंने विद्यार्थी जीवन में कई बार ऐसा किया है। जैसे ही बारिश थमेगी, मैं जाकर दूसरे गांव के दुकान से खाने का सामान खरीद कर ले आऊंगा।”

हम भूखे ही बारिश थमने का इंतजार करते रहे। कुछ घंटों में बारिश थमी और पिताजी जल्दी से जाकर खाने का सामान ले आए। कुछ दिनों के बाद पक्के की मकान बनाने का कार्य भी शुरू हो गया। फिर, हम पक्के के मकान में रहने लगे और दुबारा बारिश या बाढ़ के कारण भूखा रहना पड़ा हो ऐसी नौबत भी नहीं आई।

उस दिन हमारे मानस पटल पर यह विचार जरूर अंकित हो गया की “मांगना, उधार लेना और चुराना हमारे लिए तो कतई ही नहीं है। अगर ऐसा किया तो मेरे पिता के अप्रतिम सीख का निरादर होगा और उनके आत्मा को दुख पहुंचेगी।”

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स्मृतियाँ: चैंपियन वाली शरीर, चुस्ती, स्फूर्ति एवं साहस

अप्रैल मई महीने की धूप और गर्मी काफी भयावह होती है — डिहाइड्रेशन और लू लगने का खतरा हमेशा सिर पर मंडरा रहा होता है। खास करके बिहार प्रदेश जहां पर मेरा जन्म हुआ था। जरा सोचिये, ऐसी धूप और गर्मीं के दोपहरी में आप एक छोटे बच्चे को साइकिल के पीछे दौड़ते हुए पसीने में लथपथ देखें तो आपको कैसा लगेगा?

बात उन दिनों की है जब मैं तीसरी या चौथी कक्षा में पढता था। मेरी प्राथमिक कक्षा की पढाई लालपुर विद्यालय, जहां मेरे पिताजी शिक्षक थे वहीं से हुई थी। मेरे पिताजी औसतन 10 किमी प्रति घंटे के रफ़्तार से साइकिल चलते थे। वो मेरा स्कूल बस्ता साइकिल के कैरियर पर रख देते और मैं उनके साइकिल के पीछे पीछे दौड़ता हुआ घर वापस आता।

एकदिन कड़ी धुप और गर्मी वाली दुपहरी में मैं पीछे पीछे दौड़ रहा था और पिताजी साइकिल से आगे की तरफ बढ़ रहे थे। तभी एक शिक्षक दूसरी तरफ से आ रहे थे। उनकी नज़र मेरे ऊपर पड़ी तो उन्होंने साइकिल रोक ली और जोर से आवाज लगाते हुए डांटने की मुद्रा में मेरे पिताजी से बोले : “आप इतने निर्दयी इंसान तो नहीं हैं कि इतनी बेरहमी से पेश आएं। आपका बच्चा पसीने से लथपथ है, जोड़ जोड़ से साँसें ले रहा है और उसका चेहरा भी लाल हो गया है। फिर भी, आप उसे यूँ पीछे पीछे दौड़ाये चले जा रहे हैं।”

पिताजी ने जवाब दिया: “आज तो मैं लिफ्ट दे दूंगा परंतु, बाकी के जिंदगी भर तो उसे स्वयं ही ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। उस वक़्त न ही तो मैं देखने वाला होऊंगा न ही सँभालने वाला। लेकिन, आज अगर वह परिश्रम से शारीरिक क्षमता का विकास कर लेता है तो सारी उम्र अपने मजबूत पाँव और शरीर के बल लम्बी जीवन पथ पर चलता रहेगा। मुझे इसे लम्बी रेस का घोडा बनाना है और तन और मन से इतना मजबूत की जिंदगी की चुनौतियों का डटकर सामना कर सके। मुझे इसे चैंपियन वाली फौलादी शरीर, स्फूर्ति, ताकत और साहस से परिपूर्ण बनाना है न की एक सामान्य इंसान।”

मैं पसीने से लथ पथ पिता जी के पीछे पीछे दौड़ता रहा। उस समय यह बात बिलकुल ही समझ में नहीं आयी और काफी हद तक बेमानी भी लगी क्योंकि यह पता ही नहीं था की चैंपियन क्या होता है।

आज जब मैं यह वाकया स्मरण कर रहा हूँ और यह लेख लिख रहा हूँ तो मुझे अच्छी तरह से समझ में आ रहा है कि मेरे पिता के सानिध्य में बिता वर्ष इसी भावना से उत्प्रेरित थे की मैं कठिन परिश्रम, सम्पूर्ण समर्पण, और परिपूर्ण मन स्थिति को विकसित करें जिससे की जिंदगी में मैं जो भी करूं उसे सही तरीके से करूं और जीवन जीने के काबिल बन जाऊं।

पिता द्वारा दिए गए ट्रेनिंग और शिक्षा का ही परिणाम है कि मैं आज भी पुष्ट आहार, 7 से 8 घंटे की नींद, नियमित व्यायाम, योग और मेडिटेशन के माध्यम से एक स्वस्थ जीवनचर्या का परिचालन कर रहा हूँ। और जब भी जिंदगी में कठिन परिस्थितियां आयी तो मन नहीं घबराया बल्कि एक सही सोच, समझ, फोकस, और सकारात्मक प्रेरणा लेकर कठिनाइयों और समस्याओं से निबट पाया।

जितने भी मोटिवेशन और व्यक्तित्व विकास के ट्रेनिंग हैं वो सब इसी पर केंद्रित हैं की आप चैंपियन वाली मनस्थिति का विकास कर पाएं, आप शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को सुदृढ़ कर सकें, समस्याओं से संधि नहीं बल्कि संघर्ष करके जीत हासिल करें और जिंदगी को श्राप न समझकर आपके लिए कुछ कर गुजरने का सर्वोच्च अवसर समझ कर जीवनपथ पर अग्रसर होते रहें।

मुझे यह सब बचपन के ही दिनों में मेरे पिता से मिल गया। आज जब मैं वर्कशॉप और ट्रेनिंग करता हूँ तो बचपन में सीखे हुए उन्हीं नुख्स के प्रयोग के लोगों को प्रेरित करता हूँ और वाहवाही बटोरता हूँ।

संस्कृत के ज्ञाता और शिक्षक होने के कारण मेरे पिता को यह पता था की जो माता–पिता अपने बच्चों को पढ़ाते नहीं है ऐसे माँ–बाप बच्चो के शत्रु के समान है. विद्वानों की सभा में अनपढ़ व्यक्ति कभी भी सम्मान नहीं पा सकता वह वहां हंसो के बीच एक बगुले की तरह होता है.

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः ! न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा !!

उनके सानिध्य में बचपन में ही पचपन वाला ज्ञान और तकनीक पता चल गया जिसके बलबूते मैं आज इस मुकाम तक पहुँचा हूँ। आज बस इतना ही….

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स्मृतियाँ: शुभारंभ

जहाँ तक मुझे स्मरण है, मेरे बचपन के काफी सारे वक़्त मेरे पिता के संसर्ग में ही बिता। जब मैं छोटा बच्चा था तो अपनी गोदी में बिठा लेते या फिर अपने पास चौकी पर। फिर संस्कृत के श्लोक मुझे रटाते और याद करवाते ही रहते। हाँ कभी कभी गणित के पहारे, हिंदी के वर्ण एवं अक्षर भी। 1970 के दौर में बोल कर और याद कराके पढ़ाने की प्रक्रिया काफी प्रचलित थी. कॉपी, कलम एवं स्याही खरीदना सबके वश की बात नहीं होती थी। और, जिनके वश में होती भी थी वो थोड़ा सोच समझकर ही उपयोग करते थे क्योंकि आपूर्ति सिमित मात्रा में होती थी।

दो संस्कृत के श्लोक जो मैंने सबसे पहले सीखे थे:

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देव देव ।।

तुम ही माता हो, तुम ही पिता हो, तुम ही बन्धु हो, तुम ही सखा हो, तुम ही विद्या हो, तुम ही धन हो। हे डिवॉन के भी देव! तुम ही मेरा सब कुछ हो।

परमात्मा के पूर्णमय, सर्वव्यापी स्वरूप से परिचित कराता यह श्लोक हरेक भारतीय हिन्दू को कंठस्थ ही रहता है।

और दूसरा श्लोक:

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॥

सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय हो और कोई भी दुःख का भागी न बने।

परमात्मा के सर्व रूपमय, सम्पूर्ण जगत का परमात्मामय होने की अनुभूति और समस्त जड़ चेतन के सुखी, स्वस्थ, मंगल एवं समृद्धि की कामना को अग्रसारित करता यह दोनों श्लोक मेरे जीने का आधार सा बन गया।

इन्हीं श्लोकों से यह भाव भी मन में आ गयी कि जो भी होता है या हो रहा है वह ठीक ही है। जो भी बातें हैं सभी अच्छी ही हैं। जो कुछ भी आप कर रहे हो वो सपने को हकीकत में बदलने का एक प्रयास है — यदि हो गया तो सच नहीं तो सपना। मैं कदाचित यह नहीं कहता कि मुझमें स्वार्थ भावना जागृत नहीं होती या मेरा हर प्रयास दूसरों के भलाई के लिए ही समर्पित है परन्तु मैं हमेशा इस बात का ख्याल रखता हूँ कि मेरे कार्य से किसी को नुकसान का सामना न करना पड़े।

मुझे पिता जी ने सैकड़ों मन्त्र याद करवा दिए जिनका मैं आगे के लेखों में उल्लेख करता रहूँगा और जिनसे बहुत कुछ सिखने समझने को मिलती है — खास कर उन क्षणों में जब आप जीवन में निर्णायक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। संस्कृत के मंत्र घनघोर अँधेरे में प्रकाश बनकर की तरह मेरा मार्ग प्रशस्त करते हैं.

जब तब पिता द्वारा अनथक प्रयास के द्वारा संस्कृत एवं संस्कृत श्लोकों का सीखना मुझे काफी बोरियत वाली बात लगती थी। लेकिन, आज जब मैं लोगों के बीच उन्हीं श्लोकों का उल्लेख कर कुछ विचार रख देता हूँ तो लोग सहमत भी हो जाते हैं और उनके मन में मेरे लिए श्रद्धा और प्रेम भी जागृत होती है।

स्मृतियाँ मेरी एक कोशिश है की जीवन पथ पर चलते हुए मैंने जो सीखा है, जाना है, अनुभव किया है और जिन वाकयों ने मेरे जीवन को उत्प्रेरित और प्रभावित किया है उसे साझा करूँ। इसे लिखने का कतई यह मतलब नहीं है कि यह आपको पसंद ही आये या आप इससे प्रभावित ही हों।

मेरा यह प्रयास तुलसीदास के “स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा” दोहे से उत्प्रेरित है। मैं एक प्रयास कर रहा हूँ कि जब भी मैं फुर्सत के क्षणों में पढूं तो मैं जिंदगी को महसूस करूँ। परमात्मा के असीम कृपापात्र होने का गर्व कर सकूं। साथ में अगर आपको अच्छा लगा और कुछ सिखने समझने को मिला तो इसके परमात्मा का उद्गार और चमत्कार समझूंगा।

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