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स्मृतियाँ: शुभारंभ

जहाँ तक मुझे स्मरण है, मेरे बचपन के काफी सारे वक़्त मेरे पिता के संसर्ग में ही बिता। जब मैं छोटा बच्चा था तो अपनी गोदी में बिठा लेते या फिर अपने पास चौकी पर। फिर संस्कृत के श्लोक मुझे रटाते और याद करवाते ही रहते। हाँ कभी कभी गणित के पहारे, हिंदी के वर्ण एवं अक्षर भी। 1970 के दौर में बोल कर और याद कराके पढ़ाने की प्रक्रिया काफी प्रचलित थी. कॉपी, कलम एवं स्याही खरीदना सबके वश की बात नहीं होती थी। और, जिनके वश में होती भी थी वो थोड़ा सोच समझकर ही उपयोग करते थे क्योंकि आपूर्ति सिमित मात्रा में होती थी।

दो संस्कृत के श्लोक जो मैंने सबसे पहले सीखे थे:

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देव देव ।।

तुम ही माता हो, तुम ही पिता हो, तुम ही बन्धु हो, तुम ही सखा हो, तुम ही विद्या हो, तुम ही धन हो। हे डिवॉन के भी देव! तुम ही मेरा सब कुछ हो।

परमात्मा के पूर्णमय, सर्वव्यापी स्वरूप से परिचित कराता यह श्लोक हरेक भारतीय हिन्दू को कंठस्थ ही रहता है।

और दूसरा श्लोक:

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॥

सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय हो और कोई भी दुःख का भागी न बने।

परमात्मा के सर्व रूपमय, सम्पूर्ण जगत का परमात्मामय होने की अनुभूति और समस्त जड़ चेतन के सुखी, स्वस्थ, मंगल एवं समृद्धि की कामना को अग्रसारित करता यह दोनों श्लोक मेरे जीने का आधार सा बन गया।

इन्हीं श्लोकों से यह भाव भी मन में आ गयी कि जो भी होता है या हो रहा है वह ठीक ही है। जो भी बातें हैं सभी अच्छी ही हैं। जो कुछ भी आप कर रहे हो वो सपने को हकीकत में बदलने का एक प्रयास है — यदि हो गया तो सच नहीं तो सपना। मैं कदाचित यह नहीं कहता कि मुझमें स्वार्थ भावना जागृत नहीं होती या मेरा हर प्रयास दूसरों के भलाई के लिए ही समर्पित है परन्तु मैं हमेशा इस बात का ख्याल रखता हूँ कि मेरे कार्य से किसी को नुकसान का सामना न करना पड़े।

मुझे पिता जी ने सैकड़ों मन्त्र याद करवा दिए जिनका मैं आगे के लेखों में उल्लेख करता रहूँगा और जिनसे बहुत कुछ सिखने समझने को मिलती है — खास कर उन क्षणों में जब आप जीवन में निर्णायक परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। संस्कृत के मंत्र घनघोर अँधेरे में प्रकाश बनकर की तरह मेरा मार्ग प्रशस्त करते हैं.

जब तब पिता द्वारा अनथक प्रयास के द्वारा संस्कृत एवं संस्कृत श्लोकों का सीखना मुझे काफी बोरियत वाली बात लगती थी। लेकिन, आज जब मैं लोगों के बीच उन्हीं श्लोकों का उल्लेख कर कुछ विचार रख देता हूँ तो लोग सहमत भी हो जाते हैं और उनके मन में मेरे लिए श्रद्धा और प्रेम भी जागृत होती है।

स्मृतियाँ मेरी एक कोशिश है की जीवन पथ पर चलते हुए मैंने जो सीखा है, जाना है, अनुभव किया है और जिन वाकयों ने मेरे जीवन को उत्प्रेरित और प्रभावित किया है उसे साझा करूँ। इसे लिखने का कतई यह मतलब नहीं है कि यह आपको पसंद ही आये या आप इससे प्रभावित ही हों।

मेरा यह प्रयास तुलसीदास के “स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा” दोहे से उत्प्रेरित है। मैं एक प्रयास कर रहा हूँ कि जब भी मैं फुर्सत के क्षणों में पढूं तो मैं जिंदगी को महसूस करूँ। परमात्मा के असीम कृपापात्र होने का गर्व कर सकूं। साथ में अगर आपको अच्छा लगा और कुछ सिखने समझने को मिला तो इसके परमात्मा का उद्गार और चमत्कार समझूंगा।

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