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स्वावलंबी

बचपन में मेरा घर मिट्टी का था। जब मैं शायद पांच या छः साल का था तो तेज बारिश और बाढ़ जैसी स्थिति आने के कारण घर ढह गया। हमें मजबूरन मवेशी वाले घर में रहना पड़ा। पिताजी और मां ने मिलकर एक चौकी के ऊपर दूसरी रक्खी और हम किसी तरह बारिश से बचाव कर रहे थे।

उस समय खाना मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी से पकाई जाती थी। हमारे चूल्हे, लकड़ी अनाज सब नष्ट हो चुके थे।

मां ने चिंता जाहिर की: “बच्चे भूखे हैं। मैं जाकर परोस से कुछ उधार लेकर पका लें आती हूं।”

पिताजी ने टोक दिया: “क्या इतने वर्षों के दांपत्य जीवन में आपको कभी किसी से मांगने की जरूरत पड़ी है?”

मां ने सिर हिलाकर नकार दिया।

“आज एक दिन अगर मांग लेंगे तो जिंदगी भर सुनना पड़ेगा। लोग कहेंगे पुरा परिवार खत्म हो गया होता अगर हमने खाना नहीं बनाने दिया होता।” पिताजी ने फिर कहा।

“बच्चे भूखे हैं।” मां ने थोड़ी भारी आवाज में जवाब दिया।

“नमक चाटकर और एक ग्लास पानी पी लेने से भी भूख मिट जाती है। मैंने विद्यार्थी जीवन में कई बार ऐसा किया है। जैसे ही बारिश थमेगी, मैं जाकर दूसरे गांव के दुकान से खाने का सामान खरीद कर ले आऊंगा।”

हम भूखे ही बारिश थमने का इंतजार करते रहे। कुछ घंटों में बारिश थमी और पिताजी जल्दी से जाकर खाने का सामान ले आए। कुछ दिनों के बाद पक्के की मकान बनाने का कार्य भी शुरू हो गया। फिर, हम पक्के के मकान में रहने लगे और दुबारा बारिश या बाढ़ के कारण भूखा रहना पड़ा हो ऐसी नौबत भी नहीं आई।

उस दिन हमारे मानस पटल पर यह विचार जरूर अंकित हो गया की “मांगना, उधार लेना और चुराना हमारे लिए तो कतई ही नहीं है। अगर ऐसा किया तो मेरे पिता के अप्रतिम सीख का निरादर होगा और उनके आत्मा को दुख पहुंचेगी।”