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Hindi

जरा ठहर जाओ, विश्राम तो कर लो

क्या आपने कभी विश्राम किया है?
भगवान शिव क्षीरसागर से निकले हलाहल का पान कर लिए। पीने के बाद देवता लोग आए और पूछे,”प्रभु आपने विष का पान किया तो आपको डर नहीं लगा?”

शिवजी ने पूछा, “यह हलाहल विष कहाँ से आयी?”
देवता बोले, “समुद्र मंथन से।”
शिवजी ने पूछा, “समुद्र मंथन किसने किया?”
देवता, “जब सारे देवता थक गए तो सागर के स्वामी भगवान विष्णु ने स्वयं।”
शिवजी, “तो आप समझो – भगवान विष्णु स्वयं ही इसे पी लेते लेकिन उन्होंने मेरे पास भेज दिया। मैं तो राम राम जाप रहा था और उन्होंने विष भेज दिया। मैं तो इसे मेरे राम का प्रसाद समझकर पी लिया और विश्राम पा लिया।”

तो आपके पास जो भी है, जो भी आए उसे भगवान का प्रसाद समझ कर पान कर लीजिए, सहजता से विश्राम की अवस्था में सदैव रहेंगे।

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स्वावलंबी

बचपन में मेरा घर मिट्टी का था। जब मैं शायद पांच या छः साल का था तो तेज बारिश और बाढ़ जैसी स्थिति आने के कारण घर ढह गया। हमें मजबूरन मवेशी वाले घर में रहना पड़ा। पिताजी और मां ने मिलकर एक चौकी के ऊपर दूसरी रक्खी और हम किसी तरह बारिश से बचाव कर रहे थे।

उस समय खाना मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी से पकाई जाती थी। हमारे चूल्हे, लकड़ी अनाज सब नष्ट हो चुके थे।

मां ने चिंता जाहिर की: “बच्चे भूखे हैं। मैं जाकर परोस से कुछ उधार लेकर पका लें आती हूं।”

पिताजी ने टोक दिया: “क्या इतने वर्षों के दांपत्य जीवन में आपको कभी किसी से मांगने की जरूरत पड़ी है?”

मां ने सिर हिलाकर नकार दिया।

“आज एक दिन अगर मांग लेंगे तो जिंदगी भर सुनना पड़ेगा। लोग कहेंगे पुरा परिवार खत्म हो गया होता अगर हमने खाना नहीं बनाने दिया होता।” पिताजी ने फिर कहा।

“बच्चे भूखे हैं।” मां ने थोड़ी भारी आवाज में जवाब दिया।

“नमक चाटकर और एक ग्लास पानी पी लेने से भी भूख मिट जाती है। मैंने विद्यार्थी जीवन में कई बार ऐसा किया है। जैसे ही बारिश थमेगी, मैं जाकर दूसरे गांव के दुकान से खाने का सामान खरीद कर ले आऊंगा।”

हम भूखे ही बारिश थमने का इंतजार करते रहे। कुछ घंटों में बारिश थमी और पिताजी जल्दी से जाकर खाने का सामान ले आए। कुछ दिनों के बाद पक्के की मकान बनाने का कार्य भी शुरू हो गया। फिर, हम पक्के के मकान में रहने लगे और दुबारा बारिश या बाढ़ के कारण भूखा रहना पड़ा हो ऐसी नौबत भी नहीं आई।

उस दिन हमारे मानस पटल पर यह विचार जरूर अंकित हो गया की “मांगना, उधार लेना और चुराना हमारे लिए तो कतई ही नहीं है। अगर ऐसा किया तो मेरे पिता के अप्रतिम सीख का निरादर होगा और उनके आत्मा को दुख पहुंचेगी।”

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भटकाव, ठहराव, बदलाव

कल एक सज्जन से मिला, जो जिंदगी की परेशानियों से पिछले कुछ सालों से संघर्ष कर रहे थे और काफी जद्दोजहद के बाद अब अपने आप को थोड़ा उबरा हुआ महसूस कर रहे हैं।

“आप सब की कृपा, सुझाव, प्रोत्साहन, योग और मेडिटेशन के वजह से अब मैं ठीक महसूस कर रहा हूं।” इन शब्दों से उन्होंने अपनी मानसिक स्थिति को जाहिर किया।

मेरा भी मन बहुत ही प्रसन्न हुआ। मैंने तुरंत ही उनसे कहा:

“आपने जो स्वयं के ऊपर काम किया है, यह ठहराव लाया है यह अवश्य ही सराहनीय है।

हमारी व्यथा का जड़ ही यही है कि हम अकारण बल्ब जलाकर राख लेते हैं और मान लेते हैं के ये हमेशा प्रकाशित ही रहेंगे।

हम सोच लेते हैं कि अपने तो सदा ही अपने ही रहेंगे। यह भूल जाते हैं कि हमारा असली जुराब तो सिर्फ स्वयं से है बाकी सब तो छलावा है।

अब आपको बदलाव के तरफ बढ़ना है। आपने मानसिक अवस्था को और सुचारू करनी है। स्वयं के लिए थोड़ा सा जीना है। खुश रहना है। व्यवस्थित रहना है। व्यवहारिक होना है। वास्तविक होना है।”

वो मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए।

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भाव पे न टिकने वाले को दुकानदार समान नहीं देता तो भाव न होने वालों को हरि कैसे मिले

भाव बिना बाजार में वस्तु मिले नहीं मोल।
बिना हरी कमजोर भाव सहित हरी बोल।।
आज नज़र पर गयी कबीर के इस दोहे पर और एक कहानी याद आ गया। एक आदमी पत्नी से बोला की मैं बाज़ार जा रहा हूँ।
पत्नी बोली “बाज़ार जा रहे हो तो कुछ अच्छा दिखे तो ख़रीद लेना और ठग मत जाना बाज़ार में काफ़ी सारे ठग बैठे रहते हैं।”
पति बाज़ार पहुँचा और उसे एक छाता दिखा जो उसे पसंद आ गया। उसने दुकानदार से भाव पूछा।
दुकानदार ने कहा “200 रुपए”
पति को पत्नी की सलाह याद आ गया “उसने कहा 100 का दोगे।”
दुकानदार समझ गया की ग्राहक समझदार है, उसने कहा 160 का दूँगा।
वह समझ दुकानदार बहुत बड़ा ठग है उसने तुरंत भाव बदल दी, कहा 80 का दोगे?
दुकानदार ने कहा 10 का दूँगा।
ग्राहक ने कहा 40 का दोगे।
दुकानदार ने कहा मुफ़्त का ही लेलो
ग्राहक ने कहा फिर तो दो ले लूँगा।
और उसे दुकानदार ने छाता नहीं दिया।
अगर भाव पे न टिकने वाले को दुकानदार समान नहीं देता तो भाव न होने वालों को हरि कैसे मिल सकता है। तो अगर हरि चाहिए तो सम्पूर्ण भाव से पुकारो। ज़रूर ही मिलेंगे।

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Karlo Dunia Mutthi Mein

दुनिया आपके मुट्ठी में

एक गाँव के मंदिर में एक संत रहते थे। आस पास के गाँव के लोग अक्सर उनके पास जाकर के सत्संग का लाभ उठाते। उनके नेक एवं सटीक बातें लोगों को काफ़ी प्रोत्साहित करती और साथ ही लोगों को दैनिक जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों का सामना करने के लिए प्रेरणा भी देती।जब भी गाँव के लोग किसी संकट या उलझन में फँसा महसूस करते, वे तुरंत ही संत के पास जाते और संत उन्हें यथोचित सलाह देकर उन्हें निस्वार्थ मदद करने की कोशिश करते। यहाँ तक की अगर लोगों के बीच कुछ आपसी मतभेद या लड़ाई होती तो वे संत के पास जाते और उन्हें एक उपयुक्त और सर्वमान्य न्याय मिल जाती। इस कारण से गाँव के लोग संत के प्रति काफ़ी आदर और सम्मान की भावना रखते थे।

उनके प्रति लोगों का प्यार और विश्वास देखकर उस गाँव के कुछ नवयुवक काफ़ी ईर्ष्या महसूस करते। वे आपस में हमेशा यह बात करते रहते की हमारे पास इतनी सारी योग्यता है, हम पढ़े लिखे हैं, और हमें दुनियादारी की इतनी अच्छी समझ है फिर भी गाँव के लोग हमें कोई इम्पॉर्टन्स नहीं देते है और हमेशा इस संत के पास राय मशविरा के लिए पहुँच जाते हैं।

गाँव के युवक हमेशा ही संत की महत्ता के बारे में चर्चा करते और स्वयं को व्यथित महसूस करते। एक बार उन्होंने सोच की क्यों न इस संत की असलियत लोगों के सामने लाया जाए। क्यों न लोगों को यह बताया जाए की ये कोई चमत्कारी संत नहीं बल्कि एक साधारण आदमी ही हैं।आपस में डिस्कशन करके वे इस निर्णय पर पहुँचे की वे अगले दिन जब सारे लोग संत के पास बैठकर सत्संग कर रहे होंगे तभी वो सब साथ में जाकर संत का भांडा फोड़ेंगे।

वे सब संत के पास पहुँचे और अनुग्रह किया, “आप तो बहुत बड़े महात्मा और संत हैं। लोगों पर आपकी बड़ी श्रद्धा और विश्वास है। तो आप यह बताइए की हमारे दोनों हथेलियों के बीच में एक तितली बंद है, वो तितली ज़िंदा है या मरी हुई है।

संत ने गौर से नवयुवकों के तरफ़ देखा और उनके मंसा को समझने में उन्हें तनिक भी देरी नहीं लगी। संत ने उनसे कहा, “बच्चों, आपके हथेलियों के बीच में जो तितली बंद है वह ज़िंदा है या मरा हुआ है यह पूर्ण रूप से आपके मनःस्थिति पर निर्भर है।तितली ज़िंदा तब तक है जब तक आप अपने हथेली के बीच में उसे सहेज कर रखे हुए हैं। अगर आप चाहें तो अपने हथेलियों को ज़रा सा कस दें और तितली तुरंत ही मर जाएगी।

यह तितली ठीक उसी तरह है जैसे आपके पास असीम ऊर्जा, ज्ञान और टैलेंट है लेकिन आप उसे घृणा, नफ़रत, अकर्मण्यता और तलमटोल की आदत से पीड़ित होकर बर्बाद कर रहे हो जबकि आप उनका सदुपयोग करके एक अच्छी ज़िंदगी जी सकते हो, अपने परिवार, अपने समाज और अपने देश का नाम रौशन कर सकते हो।”

सारे उपस्थित लोगों ने मिलकर तालियाँ बजानी शुरू कर दी। नवयुवकों को संत की महानता और जीवन को सफल बनाने की कुंजी हाथ लग गयी।

तो क्या आप भी अपने गुणों को, अपने ज्ञान को और अपनी क्षमताओं को अपने मुट्ठी में बंद किए हुए है और उसे बर्बाद कर रहे हैं या उसका सदुपयोग करके स्वयं का, अपने परिवार का, अपने समाज का और अपने देश का नाम रौशन करने के दिशा में सदुपयोग कर रहे हैं?

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Shiv Pariwar

विषमता में समता का परिचायक अद्भुत शिव परिवार

भगवान् शिव के परिवार में शिव सहित माता पार्वती, कार्तिकेय, और गणेश हैं.

फिर शिव की सवारी नंदी बैल है, माता पार्वती की सवारी सिंह है, कार्तिकेय की सवारी मोर है और गणेश की सवारी मूषिक है।
भगवान् शिव के गले में सर्प है।

विषमता के वातावरण में भी समता कैसे स्थापित की जाये इसकी एक अद्भुत परिचायक है शिव परिवार। स्वाभाव से मोर साँप का दुश्मन होता है, सिंह के लिए बैल एक सर्वप्रिय आहार और सांप का तो मुख्या भोजन मूषिक ही है।
और अगर समताएँ देखें तो माता पार्वती शिव से कथाएं भी सुनती हैं, शक्ति रूप में दानवीय शक्तियों का संहार भी करती हैं, भगवान् शिव के साथ चौपड़ भी खेलती हैं और भांग भी घोटती हैं।

कार्तिकेय शौर्य ,पराक्रम ,यौवन और विजय के देवता के रूप में पूजनीय हैं।

गणेश जी तो हर घर की में प्रथम पूजनीय है – सबको प्रिय, सबके उद्धारक और प्रथम पूजनीय। इन्हें सारी दुनिया अपने माता पिता के नजदीक ही नजर आती है।

भगवान् शिव देवाधिदेव हैं। हलाहल विष को अपने कंठ में दबाये हुए हैं। परिवार का मुखिया सारी विषमताओं को पूर्ण दक्षता से परिचालन करने में सक्षम व तत्पर है इसीलिए शिव परिवार सम्पूर्ण संसार के परिचालन में सदैव तत्पर हैं और हम
सब को प्रिय भी। क्योंकि सत्य ही शिव है। शिव ही सुंदर है।

तो आप भी अपने परिवार के शिव बनिए। परिवार की समता और विषमता को शांति, सुगमता और सामन्जस्यता पूर्वक परिचालित कीजिये। भगवान् शिव और उनके परिवार की पूर्ण कृपादृष्टि आप पर सदैव बनी हुई है।
हर हर महादेव संभु काशी विश्वनाथ गंगे।

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श्री कृष्ण अर्पणमास्तु

एक छोटा सा बच्चा है। माँ अपने छाती से लगा लेती है बच्चा माँ का दूध पीने लगता है। माँ मातृत्व के आनंद से आनंदित हो जाती है – जैसे उसके लिए मातृत्व से बड़ा कोई सुख ही नहीं हो। एक बच्चा माँ के दूध पर शंका नहीं करता। इसीलिए माँ के रूप में हमें ईश्वरियता से प्रथम साक्षात्कार होता है । आप कितने भी दुःख में हो, माँ का आँचल अगर दो घड़ी के लिए मिल जाए तो शूकूँ आ ही जाता है।

आज कल लोग ईश्वर पर शंका बहुत करने लगे हैं। ईश्वर में भावना की जगह व्यावहारिकता को ज़्यादा खोजने लगे हैं । समर्पण की जगह लॉजिक ने ज़्यादा ले ली है।
मुझे बचपन में सुनी एक कहानी याद आ रही है – एक स्त्री अपने हर काम श्री कृष्ण को समर्पित कर देती। यहाँ तक कि घर को गोबर से नीपती और बचे हुए गोबर श्री कृष्ण अर्पणमास्तु कह के घर के बाहर फेंक देती। वह गोबर सीधा गाँव के मंदिर में स्थापित भगवान कृष्ण के मूर्ति के चेहरे पर जा गिरता। पुजारी बहुत परेशान। हर दिन उसे भगवान के चेहरे की सफ़ाई जो करनी पड़ती।

वह स्त्री बीमार पड़ गयी और जब मृत्यु का समय आया वो श्री कृष्ण अर्पणमास्तु कह कर प्राणत्याग दी। तुरंत मंदिर के भगवान की मूर्ति भी टूट गयी। फिर उस स्त्री को लेने के लिए स्वर्गलोक से विमान आया। वह विमान मंदिर से टकरा गया और मंदिर भी टूटकर गिर गया।

यह कहानी इस बात का परिचायक है की भक्त जब अपना सर्वस्व भगवान को समर्पित कर देता है तो भगवान उसे स्वयं से भी ऊपर उठा देते है। एक बार बिना किसी लॉजिक के भगवान को समर्पण तो करके देखो, एक बार सर उठाकर उसे श्री कृष्ण अर्पणमास्तु कहकर अपने को उसके हवाले करके तो देखो। प्रश्न अपने आप सुलझ जाएँगे। मीरा के ज़हर अमृत में तब्दील हो गए, द्रौपदी की लाज बच गयी, ध्रुव के प्राण बच गए, और गज़ की रक्षा हो गयी। तो आपका भी हो जाएगा।

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