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दुनिया आपके मुट्ठी में

एक गाँव के मंदिर में एक संत रहते थे। आस पास के गाँव के लोग अक्सर उनके पास जाकर के सत्संग का लाभ उठाते। उनके नेक एवं सटीक बातें लोगों को काफ़ी प्रोत्साहित करती और साथ ही लोगों को दैनिक जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों का सामना करने के लिए प्रेरणा भी देती।जब भी गाँव के लोग किसी संकट या उलझन में फँसा महसूस करते, वे तुरंत ही संत के पास जाते और संत उन्हें यथोचित सलाह देकर उन्हें निस्वार्थ मदद करने की कोशिश करते। यहाँ तक की अगर लोगों के बीच कुछ आपसी मतभेद या लड़ाई होती तो वे संत के पास जाते और उन्हें एक उपयुक्त और सर्वमान्य न्याय मिल जाती। इस कारण से गाँव के लोग संत के प्रति काफ़ी आदर और सम्मान की भावना रखते थे।
उनके प्रति लोगों का प्यार और विश्वास देखकर उस गाँव के कुछ नवयुवक काफ़ी ईर्ष्या महसूस करते। वे आपस में हमेशा यह बात करते रहते की हमारे पास इतनी सारी योग्यता है, हम पढ़े लिखे हैं, और हमें दुनियादारी की इतनी अच्छी समझ है फिर भी गाँव के लोग हमें कोई इम्पॉर्टन्स नहीं देते है और हमेशा इस संत के पास राय मशविरा के लिए पहुँच जाते हैं।
गाँव के युवक हमेशा ही संत की महत्ता के बारे में चर्चा करते और स्वयं को व्यथित महसूस करते। एक बार उन्होंने सोच की क्यों न इस संत की असलियत लोगों के सामने लाया जाए। क्यों न लोगों को यह बताया जाए की ये कोई चमत्कारी संत नहीं बल्कि एक साधारण आदमी ही हैं।आपस में डिस्कशन करके वे इस निर्णय पर पहुँचे की वे अगले दिन जब सारे लोग संत के पास बैठकर सत्संग कर रहे होंगे तभी वो सब साथ में जाकर संत का भांडा फोड़ेंगे।
वे सब संत के पास पहुँचे और अनुग्रह किया, “आप तो बहुत बड़े महात्मा और संत हैं। लोगों पर आपकी बड़ी श्रद्धा और विश्वास है। तो आप यह बताइए की हमारे दोनों हथेलियों के बीच में एक तितली बंद है, वो तितली ज़िंदा है या मरी हुई है।
संत ने गौर से नवयुवकों के तरफ़ देखा और उनके मंसा को समझने में उन्हें तनिक भी देरी नहीं लगी। संत ने उनसे कहा, “बच्चों, आपके हथेलियों के बीच में जो तितली बंद है वह ज़िंदा है या मरा हुआ है यह पूर्ण रूप से आपके मनःस्थिति पर निर्भर है।तितली ज़िंदा तब तक है जब तक आप अपने हथेली के बीच में उसे सहेज कर रखे हुए हैं। अगर आप चाहें तो अपने हथेलियों को ज़रा सा कस दें और तितली तुरंत ही मर जाएगी।
यह तितली ठीक उसी तरह है जैसे आपके पास असीम ऊर्जा, ज्ञान और टैलेंट है लेकिन आप उसे घृणा, नफ़रत, अकर्मण्यता और तलमटोल की आदत से पीड़ित होकर बर्बाद कर रहे हो जबकि आप उनका सदुपयोग करके एक अच्छी ज़िंदगी जी सकते हो, अपने परिवार, अपने समाज और अपने देश का नाम रौशन कर सकते हो।”
सारे उपस्थित लोगों ने मिलकर तालियाँ बजानी शुरू कर दी। नवयुवकों को संत की महानता और जीवन को सफल बनाने की कुंजी हाथ लग गयी।
तो क्या आप भी अपने गुणों को, अपने ज्ञान को और अपनी क्षमताओं को अपने मुट्ठी में बंद किए हुए है और उसे बर्बाद कर रहे हैं या उसका सदुपयोग करके स्वयं का, अपने परिवार का, अपने समाज का और अपने देश का नाम रौशन करने के दिशा में सदुपयोग कर रहे हैं?

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गुरु वचनों के श्रवण से ही ज्ञान की प्राप्ति संभव है

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“गुरु वचनों के श्रवण से ज्ञान की प्राप्ति होती है और अर्जित ज्ञान का जब हम मनन, साक्षात्कार बोध और अभ्यास के माध्यम से सम्पूर्णता से ग्रहण करते हैं तो वह विज्ञान हो जाता है।
जिनमें ज्ञान और विज्ञान दोनों की स्थापना हो जाती है वैसे परमज्ञानी पुरुष के लिए धूल, पत्थर, सोना सब एक समान हो जाता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं की ऐसे परमज्ञानी योगी को हममें, तुममें, खड्ग, खंभ में।घट, घट सिर्फ़ ईश्वरीय ऐश्वर्य की ही अनुभूति और अनुभव होती है।”

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तश्मै श्री गुरूवे नमः

बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि । महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ॥५॥

बंदउ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥

अमिय मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥

सुकृति संभु तन बिमल बिभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥

जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥

श्रीगुर पद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥

सूझहिं राम चरित मनि मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥

गुरु चरण वंदनीय हैं क्योंकि उनके वचन सुरुचिपूर्ण, सुगंध तथा अनुराग रास से पूर्ण हैं। गुरु सञ्जीवनी बूटी हैं जो सारे भवरोगों के परिवार का नाश करते हैं। गुरु वंदनीय हैं क्योंकि मुश्किल की घडी में जब कोई उपाय नहीं सूझ रहा हो तो उनके स्मरण मात्र से हृदय में दिव्य दृष्टी उत्पन्न हो जाती है जिससे अज्ञानरूपी अंधकार का नाश हो जाता है।

गुरु वंदनीय हैं क्योंकि संसार में जो दुःख दोष रूपी रात्रि है उसमें उनके ज्ञान के प्रभाव से नेत्र खुल जाते हैं जिससे मार्ग प्रशस्त दिखने लगते हैं।

गुरु वंदनीय हैं क्योंकि उनके चरण धूल उस अंजन के तरह है जिसे लगाने से पर्वतों, वनों, और पृथ्वी के गुह्य से भी गुह्य रहश्य अपने आप प्रकट होने लगते हैं।

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श्री कृष्ण कहते हैं: जो व्यक्ति मुझे जान लेता है उसे शांति प्राप्त हो जाता है

श्री कृष्ण कहते हैं:
“भक्तों द्वारा किए गए सारे यज्ञों और तपों के भोक्ता, सम्पूर्ण ब्रह्मांड के महान ईश्वर एवं सभी प्राणियों के मित्र  के रूप में जो व्यक्ति मुझे जान लेता है उसे शांति प्राप्त हो जाता है।”

किसी ने भजन कर लिया, किसी ने ध्यान कर लिया, किसी ने पूजा कर ली, किसी ने नाम स्मरण कर लिया, किसी ने यज्ञ कर लिए — चाहे जो भी किए जैसे भी किए सबके भोक्ता भगवान ही हैं। सिर्फ़ शर्त यही है की भाव भक्त का होना चाहिए।

किसी का सहारा बन गये, किसी की भूख मिटा दिये, किसी के दर्द की दवा कर दिए, किसी के आंसू पोंछ दिए, किसी के सपने सच कर दिये, किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट का कारण बन गये, इत्यादि सत्कर्मों के भोक्ता भी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही हैं।

वह जो अच्छे बुरे सभी परिस्थितियों में साथी सहायक बने, वह जो समर्थक और शुभचिंतक है, वह जो सब प्रकार से अपने अनुरूप रहे, वह जो प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों में हित ही चाहे — श्रीकृष्ण कहते हैं तुम मुझे सभी प्राणियों का मित्र मान लो।

अभी से श्रीकृष्ण के इस वचन को गठरी में बांध लीजिए की वे ही हमारे प्रथम, एकमात्र और सर्वोपरि मित्र हैं, हमें तो केवल भक्ति का रिश्ता निभाते रहना है।

ॐ शान्ति: शांति: शांति:

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दुख के कारण क्या क्या हैं

श्रीकृष्ण कहते हैं: “इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होनेवाला सुख आदि अंत वाले और दुःखके कारण हैं। अत: बुद्धिमान पुरुष उनमें मन नहीं रमाते।”
आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा और मन ये छह इंद्रियाँ सतत ही विषयों का भोग मिले इसके लिए लालायित रहते हैं बिलकुल मोबाइल फ़ोन के अंटेना की तरह बल्कि उससे भी तीव्र। अगर विज्ञान की भाषा से देखें तो इनकी ग्रहण शक्ति बाक़ी सारे अंटेनाओं से काफ़ी ज़्यादा हैं। आँख देखने के लिए, कान मधुर वचन सुनने के लिए, नाक सुगंध के लिए, जिह्वा स्वादपूर्ण भोजन के लिए, त्वचा स्पर्श के लिए तो मन भोग विलास मय विचारों में  लीन रहने के लिए।

ज़रा सोचिए — आपको रसगुल्ला खाने की इच्छा है, सामने रसगुल्लों से भरा प्लेट आ जाए। आप को ५ १० रसगुल्ले तो बड़े अच्छे लगेंगे लेकिन आपसे १०० रसगुल्ले खाने को कहा जाए तो वह सुख देने वाला होगा या दुःख? इसी तरह, आपका प्रेमी आपसे एक दो बार “आई लव यू” कहने की जगह हार २ मिनट में “आई लव यू कहना शुरू करदे तो आप तो पागल ही जो जाओगे ना।

इसीलिए श्रीकृष्ण यहाँ चेताते हैं की बुद्धिमान पुरुष इंद्रियों और विषयों के भोग से प्राप्त होने वाले स्थिति में मन नहीं रमाते। आप क्या कर रहे हैं? सोचिएगा।

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गुणों और कर्मो के हिसाब से ही वर्णों का विभाजन

श्रीकृष्ण कहते हैं: “गुणों और कर्मों के हिसाब से मैंने ही चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की रचना की है। पर मुझे कर्म लिप्त नहीं करते क्योंकि कर्म फल की चिंता नहीं करता।

यहाँ कहीं भी यह नहीं कहा गया है की क्योंकि तुम एक ख़ास वर्ण में पैदा हो गए इसलिए तुम बड़े हो गए या तुझे इसका घमंड करना चाहिए। आज की करियर सफलता की जितनी भी विधाएँ हैं सब यही सुझाते हैं की तुम वह काम करो जिसमें तुझे रुचि हो, करने में मज़ा आए और प्रसन्नता मिले ।

जिनमें विद्या अर्जन, बुद्धि विकास, और ज्ञान मार्ग में अधिक रुचि है वो ब्राह्मणत्व वाला कार्य करें। जिनमें शारीरिक क्षमता और शक्ति के पथ पर चलने की इच्छा हो वो राष्ट्र और रक्षा सम्बन्धी कार्य को करें। जिन्हें धन अर्जन का शौक़ हो वो वैश्य (उद्दमी) का कार्य करें और जिन्हें सेवा सहायता के क्षेत्र में कौशल हो तो वो शूद्र (सेवा) का कार्य करें।
सफलता का मूल मंत्र ही यही है की यदि एक व्यक्ति एक प्रकार का कार्य पूरा मन लगाकर करता है, तो उसमें कुशलता और विशेषज्ञता मिल जाती है ।। बार- बार कार्य को बदलते रहने से कुछ भी लाभ नहीं होता, न काम ही अच्छा बनता है।

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समदर्शी ज्ञानी पुरुष ब्राह्मण में चाण्डाल में तथा गाय हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखते हैं

श्रीकृष्ण कहते हैं “समदर्शी ज्ञानी महापुरुष विद्याविनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्माको देखनेवाले होते हैं।”

हमारी सामाजिक प्रथा मानव को जाती के आधार पर बाँटती है तो पशुओं को योनि के आधार पर। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं की जो आध्यात्मिकता के बल से समदर्शी हो गए हैं वो जाती वर्ग, धर्म चरित्र स्वभाव व्यवसाय रोज़गार इत्यादि द्वारा मानव और जानवर में भेद नहीं करते। जैसे सूरज की रोशनी सब के लिए बराबर है। जैसे वर्षा सब जगह बराबर होती है। जैसे हवा समान रूप और गति से सब जगह उपलब्ध है

मुझे एक कहानी याद आ रहा है। इंद्र अपनी सभा में राजा श्रेणिक के समदर्शिता की प्रसंशा कर रहे थे। एक देवता से सुना न गया। उन्होंने श्रेणिक की परीक्षा लेने के लिए धरती लोक पर आए।वो साधु का रूप बनाकर तालाब में मछली मारने का नाटक करने लगे। थोड़ी देर में श्रेणिक जब उधर से गुजरे तो उन्होंने आपत्ति जतायी “अरे! आप यह क्या अपकर्म कर रहे हैं?

साधु ने जवाब दिया “मैं धर्म अधर्म नहीं जानता। मैं इन मछलियों को बेचूँगा और जाड़े के लिए कम्बल खरीदूँगा।”

राजा श्रेणिक बिना कोई जवाब दिए वहाँ से चल दिए।

देवता वापस आकर इंद्र से बोले “श्रेणिक सचमुच में साधु है — उसने पापी असदाचार की निंदा एवं उनसे घृणा करना भी छोड़ दिया है।”

वही लोहा पूजा में भी और बधिक के काम भी आता है।
नाले का पानी जब गंगाजल में मिल जाता है तो गंगाजल बन जाता है।

एक ही पत्थर भगवान की मूर्ति और नारियल तोड़ने के लिए उपयोग किया जाता है।

समदर्शी बनिए भेद भाव छोड़िए।

आत्मा तथा परमात्मा के लक्षण समान हैं दोनों चेतन, शाश्र्वत तथा आनन्दमय हैं | अन्तर इतना ही है कि आत्मा शरीर की सीमा के भीतर सचेतन रहता है जबकि परमात्मा सभी शरीरों में सचेतन है | परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान है।

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तुम मेरे शोक ऑब्जर्वर हो

गाड़ी सड़क पर चलती रहती है। एक्सेलेरेटर, गियर, ब्रेक, इंजन सब आपस में तालमेल बनाए हमें गंतव्य तक पहुंचने में मदद करते रहते हैं।

लेकिन, इस सब के बीच में एक गाड़ी का पार्ट होता है जो बिना कुछ बताएं या जताए गाड़ी को ऊंच नीच गड्ढा खाई से बचाते हुए एक सुखद और आरामदायक सफर मुमकिन करता है उसे शोक ऑब्जर्वर कहते हैं।

हमारी जिंदगी में भी कुछ लोग ऐसे ही शॉक ऑब्जर्वर की तरह होते हैं। न कुछ मांगा, न कुछ पूछा, न जताया न बताया, बस आपके जीवन मार्ग को सुखद और आरामदायक बनाता रहा —अच्छे वक्त मै साये की तरह और कठिन क्षणों में शॉक आब्जर्वर की तरह!

ऐसे लोगों का नाम पता अपने दिल पर लिख लीजिए।

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तत्त्वज्ञान से ही परमात्मा दर्शन

श्री कृष्ण कहते हैं ^हे पार्थ जब तुम तत्वज्ञान को प्राप्त कर लोगे तो तुममें जो यह मोह माया है वह नहीं रहेगी और तुम सम्पूर्ण प्राणियों को अपने आत्म स्वरूप में तथा मुझमें देखोगे।”
पहले श्रीकृष्ण कहते हैं कि गुरुसे विधिपूर्वक श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेपर तुम सबसे पहले अपने स्वरूपमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देखने लगते हो। सब मैं ही हूँ और सबमें मेरे ही अंश है। फिर जब हम सत्संग, ध्यान, धारणा इत्यादि प्रक्रियाओं द्वारा ईश्वरीय तत्व को समझ लेते हैं फिर तुम्हारी यात्रा तत्वमय स्वयम से ईश्वरमय में विलीन हो जाती है। फिर तेरा मेरा का फेर छूट जाता है। तुम्हारा क्या है जो तुझे खोने का डर है। तुमने क्या पैदा किया है जिसके नष्ट होने से तुम दुखी होओगे। न कोई उमंग है। न कोई तरंग है।  द्वैत अद्वैत से भी परे अहं ब्रह्मास्मि में स्थित हो जाओ इसे श्रीकृष्ण तत्वज्ञान कहते हैं।

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ज्ञान प्राप्ति के योग्य गुरु कौन है

श्रीकृष्ण कहते हैं “अपने आप को सम्पूर्ण समर्पित कर नम्रता, सरलता और जिज्ञासु भाव से ऐसे गुरु जिन्हें आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान हो तथा जो अनंत स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थित हो उनके पास जाकर ज्ञान प्राप्ति कर।”

गुरु वह है जो अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाए। क्योंकि हम ज़िंदगी में कई बार ऐसे दुर्गम स्थिति से गुजरते हैं जहां हमारे लिए सही सोचना, सही समझना और समुचित निर्णय लेना दूभर हो जाता है। अर्जुन भी काफ़ी परेशान था और पशोपेश में था।
दो जगह हमें गुरु की आवश्यकता का बहुत ही सुंदर परिचय मिलता है — (क) जब राम सबरी के आश्रम में आते हैं तो सबरी उन्हें पहचान नहीं पाती और कोई छलिया समझकर भाग देती हैं तो उसी समय उनके गुरु मतंग मुनि जी प्रकट होते हैं और कहते हैं “ऐ सबरी यही तो तुम्हारा राम है।” (ख) जब तुलसीदास जी के पास राम लक्ष्मण बाल रूप में आते हैं और चंदन लगा देने कीं ज़िद्द करते हैं तो वो उन्हें भगाते हैं तभी हनुमान जी आकर उन्हें कहते हैं “ये भगवान राम और लखन स्वयं ही बालरूप में हैं” आपने सुना ही होगा “चित्रकूट के घाट पर लगे संतान की भीर। तुलसीदास चंदन रगड़े तिलक करे राम रघुवीर।”
ज़िंदगी में जब भी प्रश्न या परेशानी हो तो सब से पहले “गुरु से निदान का आग्रह कीजिए, अगर गुरु ना हों तो शास्त्र में सुझाए गए उपाय का अनूशरण कर लीजिए और वह भी उपलब्ध न हो तो अपने हृदय की आवाज़ सुनकर निर्णय ले लीजिए लेकिन कभी भी किसी अनभिज्ञ मानव के सलाह से निर्णय मत लीजिए।”

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जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ

श्रीकृष्ण कहते हैं: “हे पार्थ जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुकरण करते हैं।”

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 11||

देवकी और वसुदेव जो पूर्वजन्म में प्रिश्रि और सुतपा थे उन्होंने “मुझे आप जैसा संतान मिले” यह माँग लिया। उन्होंने भगवान से कुछ मांगने के जगह भगवान को ही माँग लिया।

राधा ने उन्हें अपनी प्रेमी के रूप में मन और हृदय में बसा लिया।

द्रौपदी के लिए सखा अर्जुन के लिए पथप्रदर्शक

सूरदास जी ने कृष्ण के बालरूप को ही अपना लिया उन्हें बड़ा होने ही नहीं होने दिया।

मीरा ने अपना सर्वश्व मानकर सबकुछ समर्पण कर दिया।

कई के लिए भगवान तो कहीं नारायण।

कुछ भुक्ति के लिए शरण का आश्रय ले लिया कुछ ने मुक्ति के लिए चरण में न्योछावर हो लिए।

कुछ दुर्योधन जैसे भी हुए जिन्होंने नारायणी सेना की तरह धन, संपती, सुख, वैभव, इत्यादि जैसी वस्तुएँ माँग ली और और मोती छोड़ कौड़ी से खुश हो गए।
पढ़िए। सोचिए। स्मरण कीजिए। आपको शरणागत के शरण में कैसी शरणागति चाहिए।

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ईश्वरीय भाव कैसे प्राप्त करें

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“राग भय और क्रोधसे सर्वथा रहित मेरे में ही तल्लीन मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तपसे पवित्र हुए बहुतसे भक्त मेरे भाव को प्राप्त हो चुके हैं।”

यहाँ श्रीकृष्ण ने कृष्णमय होने का उपाय बताया है। सर्वप्रथम तो इस बात की गारंटी दे रहे हैं कि मेरे में तल्लीन होकर, मेरे पर आश्रित होकर और ज्ञान से परिपूर्ण ताप द्वारा पवित्र होकर लोग मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं। लेकिन  शर्त भी यह हैं कि मुझमें भाव प्राप्ति से पहले  राग, भय और क्रोध को छोड़ना ही होगा। राग छोड़ने के लिए निष्काम कर्म, भय दूर करने के लिए अपने कर्म को ईश्वरीय आज्ञा मानकर पूरा करना और क्रोध से मुक्ति के लिए सर्वत्र ईश्वरीय अनुभूति को विकसित करना ही एकमात्र उपाय है।

एक बार मुझे क्या कमी है ऐसा मन बनाकर जी कर देखिए। एक बार मुझे किसी चीज़ से कोई दरकार नहीं है ऐसा विचार करके देखिए। एकबार ग़ुलाम की तरह नहीं बल्कि गुल्फ़ाम की तरह मन बनाकर जिएँ।

यही मार्ग तुलसीदास जी ने भी तो रामायण में कहा ही है: “प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।”

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साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालों का विनाश

श्रीकृष्ण कहते हैं:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
“मैं साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालोंका विनाश करने के लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युगयुग में प्रकट हुआ करता हूँ।”
यह एक बहूत बड़ी gauranti है ईश्वर के तरफ से कि जब भी अधर्म, अन्याय, पाप हावी होने लगेगा तो मैं आकर उनका विनाश करूँगा।
साधुता कामनाओ का विनाशक है। साधुता धर्म का विस्तारक है। साधुता स्वयं का उद्धार और लोगों का उद्धार है। साधुता सृष्टि के समस्त जड़ और चेतन के उपकार हेतु सतत प्रयत्नशील रहना है।
तो जब भी हम साधुता के पथ से भटकते हैं तो हमारी आत्मा हमे कचोटती है कि यह ठीक नहीं है लेकिन कामनाओं के प्रचंडता के कारण आत्मानुभूति दब जाती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जब तू धर्म की हानि करेगा और अधर्म को प्रभावित तब तब मैं प्रगट होऊँगा और तुझे फिर से धर्म मार्ग पर लेकर आऊँगा।


“मैं साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालोंका विनाश करने के लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युगयुग में प्रकट हुआ करता हूँ।”


यह एक बहूत बड़ी गारंटी है परमात्मा के तरफ से कि जब भी अधर्म, अन्याय, पाप हावी होने लगेगा तो मैं आकर उनका विनाश करूँगा।

साधुता का मतलाब यहां कामनाओ के विनाशक से है। साधुता धर्म का विस्तारक है। साधुता स्वयं का उद्धार और लोगों का उद्धार है। साधुता सृष्टि के समस्त जड़ और चेतन के उपकार हेतु सतत प्रयत्नशील रहना है।

तो जब भी हम साधुता के पथ से भटकते हैं तो हमारी आत्मा हमे कचोटती है कि यह ठीक नहीं है लेकिन कामनाओं के प्रचंडता के कारण आत्मानुभूति दब जाती है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जब तू धर्म की हानि करेगा और अधर्म को प्रभावित तब तब मैं प्रगट होऊँगा और तुझे फिर से धर्म मार्ग पर लेकर आऊँगा।

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कामना को इस जगत में तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु जानो

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“यह कामना रजोगुण में उत्पन्न हुई है यही क्रोध है इसकी भूख बहुत बड़ी है और यह महापापी है इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो।”

अर्थशास्त्री कहते हैं कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है और यह एक हद तक ठीक भी है लेकिन यह आवश्यकता हमारी कामना में बदल जाती है। कामना पूर्ति की इच्छा इतनी हावी हो जाती है कि हम उसे पूरा करने के लिए छल, कपट, क्रोध, बेमानी, इत्यादि करने में भी हिचक महसूस नहीं करते।

अक्सर हमारे दुखों का कारण वह वस्तु नहीं है जो हमारे पास है बल्कि वह है जो हमारे पास नहीं है। तो आज आप अपने कामनाओं की लिस्ट बनाइये और फिर उनमें से आवश्यकताएँ कौन सी है और कामनाएँ कौन सी उनका पहचान कीजिए। कामना रूपी सत्रु ने किसी को भी सुखी नहीं किया है तुलसीदास भी मानस में कहते हैं “काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं”।

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तुम बाकी सब छोड़कर सिर्फ़ मेरे शरण में आ जाओ

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : “तुम बाकी सब छोड़कर सिर्फ़ मेरे शरण में आ जाओ।”

अब यही बात जब एक आम आदमी कहे तो वो अपने नश्वर शरीर को ‘मैं’ मानकर कहेगा और सामने वाला इसे अपनी तौहीन समझेगा। लेकिन जब श्रीकृष्ण कहते हैं तो वह एक सिद्ध परमात्मा की आवाज़ है। उसमें मैं वाला घमंड नहीं बल्कि ईश्वरीय आश्वासन है कि जब भी तुम परेशान हो, जब भी तुम्हें आगे रास्ता न दिखे, जब भी संकट से उबरने के कोई उपाय न मिले, सुख हो या दुख —सभी को मेरे पर छोड़कर मेरे शरण में आ जा। बस वैसे ही जैसे एक छोटा बच्चा माँ के पास भाग के चला जाता है।

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