skip to content

Hindi

ईश्वरीय भाव कैसे प्राप्त करें

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“राग भय और क्रोधसे सर्वथा रहित मेरे में ही तल्लीन मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तपसे पवित्र हुए बहुतसे भक्त मेरे भाव को प्राप्त हो चुके हैं।”

यहाँ श्रीकृष्ण ने कृष्णमय होने का उपाय बताया है। सर्वप्रथम तो इस बात की गारंटी दे रहे हैं कि मेरे में तल्लीन होकर, मेरे पर आश्रित होकर और ज्ञान से परिपूर्ण ताप द्वारा पवित्र होकर लोग मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं। लेकिन  शर्त भी यह हैं कि मुझमें भाव प्राप्ति से पहले  राग, भय और क्रोध को छोड़ना ही होगा। राग छोड़ने के लिए निष्काम कर्म, भय दूर करने के लिए अपने कर्म को ईश्वरीय आज्ञा मानकर पूरा करना और क्रोध से मुक्ति के लिए सर्वत्र ईश्वरीय अनुभूति को विकसित करना ही एकमात्र उपाय है।

एक बार मुझे क्या कमी है ऐसा मन बनाकर जी कर देखिए। एक बार मुझे किसी चीज़ से कोई दरकार नहीं है ऐसा विचार करके देखिए। एकबार ग़ुलाम की तरह नहीं बल्कि गुल्फ़ाम की तरह मन बनाकर जिएँ।

यही मार्ग तुलसीदास जी ने भी तो रामायण में कहा ही है: “प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।”

ईश्वरीय भाव कैसे प्राप्त करें Read More »

साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालों का विनाश

श्रीकृष्ण कहते हैं:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
“मैं साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालोंका विनाश करने के लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युगयुग में प्रकट हुआ करता हूँ।”
यह एक बहूत बड़ी gauranti है ईश्वर के तरफ से कि जब भी अधर्म, अन्याय, पाप हावी होने लगेगा तो मैं आकर उनका विनाश करूँगा।
साधुता कामनाओ का विनाशक है। साधुता धर्म का विस्तारक है। साधुता स्वयं का उद्धार और लोगों का उद्धार है। साधुता सृष्टि के समस्त जड़ और चेतन के उपकार हेतु सतत प्रयत्नशील रहना है।
तो जब भी हम साधुता के पथ से भटकते हैं तो हमारी आत्मा हमे कचोटती है कि यह ठीक नहीं है लेकिन कामनाओं के प्रचंडता के कारण आत्मानुभूति दब जाती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जब तू धर्म की हानि करेगा और अधर्म को प्रभावित तब तब मैं प्रगट होऊँगा और तुझे फिर से धर्म मार्ग पर लेकर आऊँगा।


“मैं साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालोंका विनाश करने के लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युगयुग में प्रकट हुआ करता हूँ।”


यह एक बहूत बड़ी गारंटी है परमात्मा के तरफ से कि जब भी अधर्म, अन्याय, पाप हावी होने लगेगा तो मैं आकर उनका विनाश करूँगा।

साधुता का मतलाब यहां कामनाओ के विनाशक से है। साधुता धर्म का विस्तारक है। साधुता स्वयं का उद्धार और लोगों का उद्धार है। साधुता सृष्टि के समस्त जड़ और चेतन के उपकार हेतु सतत प्रयत्नशील रहना है।

तो जब भी हम साधुता के पथ से भटकते हैं तो हमारी आत्मा हमे कचोटती है कि यह ठीक नहीं है लेकिन कामनाओं के प्रचंडता के कारण आत्मानुभूति दब जाती है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जब तू धर्म की हानि करेगा और अधर्म को प्रभावित तब तब मैं प्रगट होऊँगा और तुझे फिर से धर्म मार्ग पर लेकर आऊँगा।

साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालों का विनाश Read More »

कामना को इस जगत में तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु जानो

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“यह कामना रजोगुण में उत्पन्न हुई है यही क्रोध है इसकी भूख बहुत बड़ी है और यह महापापी है इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो।”

अर्थशास्त्री कहते हैं कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है और यह एक हद तक ठीक भी है लेकिन यह आवश्यकता हमारी कामना में बदल जाती है। कामना पूर्ति की इच्छा इतनी हावी हो जाती है कि हम उसे पूरा करने के लिए छल, कपट, क्रोध, बेमानी, इत्यादि करने में भी हिचक महसूस नहीं करते।

अक्सर हमारे दुखों का कारण वह वस्तु नहीं है जो हमारे पास है बल्कि वह है जो हमारे पास नहीं है। तो आज आप अपने कामनाओं की लिस्ट बनाइये और फिर उनमें से आवश्यकताएँ कौन सी है और कामनाएँ कौन सी उनका पहचान कीजिए। कामना रूपी सत्रु ने किसी को भी सुखी नहीं किया है तुलसीदास भी मानस में कहते हैं “काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं”।

कामना को इस जगत में तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु जानो Read More »

तुम बाकी सब छोड़कर सिर्फ़ मेरे शरण में आ जाओ

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : “तुम बाकी सब छोड़कर सिर्फ़ मेरे शरण में आ जाओ।”

अब यही बात जब एक आम आदमी कहे तो वो अपने नश्वर शरीर को ‘मैं’ मानकर कहेगा और सामने वाला इसे अपनी तौहीन समझेगा। लेकिन जब श्रीकृष्ण कहते हैं तो वह एक सिद्ध परमात्मा की आवाज़ है। उसमें मैं वाला घमंड नहीं बल्कि ईश्वरीय आश्वासन है कि जब भी तुम परेशान हो, जब भी तुम्हें आगे रास्ता न दिखे, जब भी संकट से उबरने के कोई उपाय न मिले, सुख हो या दुख —सभी को मेरे पर छोड़कर मेरे शरण में आ जा। बस वैसे ही जैसे एक छोटा बच्चा माँ के पास भाग के चला जाता है।

तुम बाकी सब छोड़कर सिर्फ़ मेरे शरण में आ जाओ Read More »

क्या आप धार्मिक हैं?

यतो अभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। (कणाद, वैशेषिकसूत्र, १.१.२)
धर्म वह मार्ग है जिस पर चलकर हमें लौकिक और पारलौकिक उन्नति एवं कल्याण की प्राप्ति होती है।
धर्म कोई उपासना पद्घति नहीं बल्कि जीवन-पद्घति है।
धर्म दिखावा नहीं, दर्शन है
यह प्रदर्शन नहीं, प्रयोग है।
यह मनुष्य को आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्त कर सार्थक जीवन प्रदान करने वाली औषधि है।
धर्म वह विज्ञान है जिससे स्वयं द्वारा स्वयं की खोज कर सकते है।
धर्म, ज्ञान और आचरण की खिड़की खोलता है।
यह आपको को पशुता से मानवता की ओर प्रेरित करता है।
अनुशासन का अनुशरण ही धर्म है।
हृदय की पवित्रता ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है।
धर्म का सार जीवन में संयम का होना है।

क्या आप धार्मिक हैं? Read More »

जरा ठहर जाओ, विश्राम तो कर लो

क्या आपने कभी विश्राम किया है?
भगवान शिव क्षीरसागर से निकले हलाहल का पान कर लिए। पीने के बाद देवता लोग आए और पूछे,”प्रभु आपने विष का पान किया तो आपको डर नहीं लगा?”

शिवजी ने पूछा, “यह हलाहल विष कहाँ से आयी?”
देवता बोले, “समुद्र मंथन से।”
शिवजी ने पूछा, “समुद्र मंथन किसने किया?”
देवता, “जब सारे देवता थक गए तो सागर के स्वामी भगवान विष्णु ने स्वयं।”
शिवजी, “तो आप समझो – भगवान विष्णु स्वयं ही इसे पी लेते लेकिन उन्होंने मेरे पास भेज दिया। मैं तो राम राम जाप रहा था और उन्होंने विष भेज दिया। मैं तो इसे मेरे राम का प्रसाद समझकर पी लिया और विश्राम पा लिया।”

तो आपके पास जो भी है, जो भी आए उसे भगवान का प्रसाद समझ कर पान कर लीजिए, सहजता से विश्राम की अवस्था में सदैव रहेंगे।

जरा ठहर जाओ, विश्राम तो कर लो Read More »

स्वावलंबी

बचपन में मेरा घर मिट्टी का था। जब मैं शायद पांच या छः साल का था तो तेज बारिश और बाढ़ जैसी स्थिति आने के कारण घर ढह गया। हमें मजबूरन मवेशी वाले घर में रहना पड़ा। पिताजी और मां ने मिलकर एक चौकी के ऊपर दूसरी रक्खी और हम किसी तरह बारिश से बचाव कर रहे थे।

उस समय खाना मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी से पकाई जाती थी। हमारे चूल्हे, लकड़ी अनाज सब नष्ट हो चुके थे।

मां ने चिंता जाहिर की: “बच्चे भूखे हैं। मैं जाकर परोस से कुछ उधार लेकर पका लें आती हूं।”

पिताजी ने टोक दिया: “क्या इतने वर्षों के दांपत्य जीवन में आपको कभी किसी से मांगने की जरूरत पड़ी है?”

मां ने सिर हिलाकर नकार दिया।

“आज एक दिन अगर मांग लेंगे तो जिंदगी भर सुनना पड़ेगा। लोग कहेंगे पुरा परिवार खत्म हो गया होता अगर हमने खाना नहीं बनाने दिया होता।” पिताजी ने फिर कहा।

“बच्चे भूखे हैं।” मां ने थोड़ी भारी आवाज में जवाब दिया।

“नमक चाटकर और एक ग्लास पानी पी लेने से भी भूख मिट जाती है। मैंने विद्यार्थी जीवन में कई बार ऐसा किया है। जैसे ही बारिश थमेगी, मैं जाकर दूसरे गांव के दुकान से खाने का सामान खरीद कर ले आऊंगा।”

हम भूखे ही बारिश थमने का इंतजार करते रहे। कुछ घंटों में बारिश थमी और पिताजी जल्दी से जाकर खाने का सामान ले आए। कुछ दिनों के बाद पक्के की मकान बनाने का कार्य भी शुरू हो गया। फिर, हम पक्के के मकान में रहने लगे और दुबारा बारिश या बाढ़ के कारण भूखा रहना पड़ा हो ऐसी नौबत भी नहीं आई।

उस दिन हमारे मानस पटल पर यह विचार जरूर अंकित हो गया की “मांगना, उधार लेना और चुराना हमारे लिए तो कतई ही नहीं है। अगर ऐसा किया तो मेरे पिता के अप्रतिम सीख का निरादर होगा और उनके आत्मा को दुख पहुंचेगी।”

स्वावलंबी Read More »

भटकाव, ठहराव, बदलाव

कल एक सज्जन से मिला, जो जिंदगी की परेशानियों से पिछले कुछ सालों से संघर्ष कर रहे थे और काफी जद्दोजहद के बाद अब अपने आप को थोड़ा उबरा हुआ महसूस कर रहे हैं।

“आप सब की कृपा, सुझाव, प्रोत्साहन, योग और मेडिटेशन के वजह से अब मैं ठीक महसूस कर रहा हूं।” इन शब्दों से उन्होंने अपनी मानसिक स्थिति को जाहिर किया।

मेरा भी मन बहुत ही प्रसन्न हुआ। मैंने तुरंत ही उनसे कहा:

“आपने जो स्वयं के ऊपर काम किया है, यह ठहराव लाया है यह अवश्य ही सराहनीय है।

हमारी व्यथा का जड़ ही यही है कि हम अकारण बल्ब जलाकर राख लेते हैं और मान लेते हैं के ये हमेशा प्रकाशित ही रहेंगे।

हम सोच लेते हैं कि अपने तो सदा ही अपने ही रहेंगे। यह भूल जाते हैं कि हमारा असली जुराब तो सिर्फ स्वयं से है बाकी सब तो छलावा है।

अब आपको बदलाव के तरफ बढ़ना है। आपने मानसिक अवस्था को और सुचारू करनी है। स्वयं के लिए थोड़ा सा जीना है। खुश रहना है। व्यवस्थित रहना है। व्यवहारिक होना है। वास्तविक होना है।”

वो मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गए।

भटकाव, ठहराव, बदलाव Read More »

भाव पे न टिकने वाले को दुकानदार समान नहीं देता तो भाव न होने वालों को हरि कैसे मिले

भाव बिना बाजार में वस्तु मिले नहीं मोल।
बिना हरी कमजोर भाव सहित हरी बोल।।
आज नज़र पर गयी कबीर के इस दोहे पर और एक कहानी याद आ गया। एक आदमी पत्नी से बोला की मैं बाज़ार जा रहा हूँ।
पत्नी बोली “बाज़ार जा रहे हो तो कुछ अच्छा दिखे तो ख़रीद लेना और ठग मत जाना बाज़ार में काफ़ी सारे ठग बैठे रहते हैं।”
पति बाज़ार पहुँचा और उसे एक छाता दिखा जो उसे पसंद आ गया। उसने दुकानदार से भाव पूछा।
दुकानदार ने कहा “200 रुपए”
पति को पत्नी की सलाह याद आ गया “उसने कहा 100 का दोगे।”
दुकानदार समझ गया की ग्राहक समझदार है, उसने कहा 160 का दूँगा।
वह समझ दुकानदार बहुत बड़ा ठग है उसने तुरंत भाव बदल दी, कहा 80 का दोगे?
दुकानदार ने कहा 10 का दूँगा।
ग्राहक ने कहा 40 का दोगे।
दुकानदार ने कहा मुफ़्त का ही लेलो
ग्राहक ने कहा फिर तो दो ले लूँगा।
और उसे दुकानदार ने छाता नहीं दिया।
अगर भाव पे न टिकने वाले को दुकानदार समान नहीं देता तो भाव न होने वालों को हरि कैसे मिल सकता है। तो अगर हरि चाहिए तो सम्पूर्ण भाव से पुकारो। ज़रूर ही मिलेंगे।

भाव पे न टिकने वाले को दुकानदार समान नहीं देता तो भाव न होने वालों को हरि कैसे मिले Read More »

श्री कृष्ण अर्पणमास्तु

एक छोटा सा बच्चा है। माँ अपने छाती से लगा लेती है बच्चा माँ का दूध पीने लगता है। माँ मातृत्व के आनंद से आनंदित हो जाती है – जैसे उसके लिए मातृत्व से बड़ा कोई सुख ही नहीं हो। एक बच्चा माँ के दूध पर शंका नहीं करता। इसीलिए माँ के रूप में हमें ईश्वरियता से प्रथम साक्षात्कार होता है । आप कितने भी दुःख में हो, माँ का आँचल अगर दो घड़ी के लिए मिल जाए तो शूकूँ आ ही जाता है।

आज कल लोग ईश्वर पर शंका बहुत करने लगे हैं। ईश्वर में भावना की जगह व्यावहारिकता को ज़्यादा खोजने लगे हैं । समर्पण की जगह लॉजिक ने ज़्यादा ले ली है।
मुझे बचपन में सुनी एक कहानी याद आ रही है – एक स्त्री अपने हर काम श्री कृष्ण को समर्पित कर देती। यहाँ तक कि घर को गोबर से नीपती और बचे हुए गोबर श्री कृष्ण अर्पणमास्तु कह के घर के बाहर फेंक देती। वह गोबर सीधा गाँव के मंदिर में स्थापित भगवान कृष्ण के मूर्ति के चेहरे पर जा गिरता। पुजारी बहुत परेशान। हर दिन उसे भगवान के चेहरे की सफ़ाई जो करनी पड़ती।

वह स्त्री बीमार पड़ गयी और जब मृत्यु का समय आया वो श्री कृष्ण अर्पणमास्तु कह कर प्राणत्याग दी। तुरंत मंदिर के भगवान की मूर्ति भी टूट गयी। फिर उस स्त्री को लेने के लिए स्वर्गलोक से विमान आया। वह विमान मंदिर से टकरा गया और मंदिर भी टूटकर गिर गया।

यह कहानी इस बात का परिचायक है की भक्त जब अपना सर्वस्व भगवान को समर्पित कर देता है तो भगवान उसे स्वयं से भी ऊपर उठा देते है। एक बार बिना किसी लॉजिक के भगवान को समर्पण तो करके देखो, एक बार सर उठाकर उसे श्री कृष्ण अर्पणमास्तु कहकर अपने को उसके हवाले करके तो देखो। प्रश्न अपने आप सुलझ जाएँगे। मीरा के ज़हर अमृत में तब्दील हो गए, द्रौपदी की लाज बच गयी, ध्रुव के प्राण बच गए, और गज़ की रक्षा हो गयी। तो आपका भी हो जाएगा।

श्री कृष्ण अर्पणमास्तु Read More »