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जो है उसकी रक्षा और जो नहीं है उसकी पूर्ति 

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।
यह श्लोक भगवान् कृष्ण के तरफ़ से एक आश्वासन हैं कि यदि मनुष्य एकमात्र मेरा चिंतन कर ले तो उसके पास जो है उसका मैं रक्षा कर देता हूँ और जो नहीं है उसका उपाय भी।
मैं जब भी इस श्लोक को पढ़ता हूँ तो बचपन में सुनी हुई एक कहानी याद आ जाती है।
एक भागवत गीता में प्रकाण्ड पंडित लोगों को घूम घूम कर गीता प्रवचन करता रहता। एक दिन वो राजा के दरबार में इसी श्लोक पर प्रवचन कर रहा होता है और तरह तरह के उदाहरणों और व्याख्याओं से लोगों को इस श्लोक का अर्थ और भाव समझा रहा होता है। तभी राजा पंडित को टोक देता है, “ओ पंडित जी, मुझे लगता है आपको स्वयं ही इस श्लोक का अर्थ पता नहीं है, आप पहले खुद इसका अर्थ ठीक से समझिये और फिर कल आकर हमें ठीक तरह समझाइये। “
यह सुनकर पंडित व्यथित हो जाता है और उदास भी। वह अपने घर चला जाता है। पत्नी परेशानी समझ जाती है और पूछ बैठती है, “क्या बात है? आज आप ठीक नहीं लग रहे। क्या परेशानी है जो आप के मन को व्यथित कर रही है? “
पंडित सारी वृतांत पत्नी से बताता है। पत्नी भी राजा के विचार से सहमति जताती है और पूछती है, “राजा बिलकुल सही हैं, आप स्वयं तो इस श्लोक का परिचारण नहीं करते। आप बताइये, आप राज दरबार क्यों जाते हैं?”
पंडित, “ताकि मेरी कथा सुनके राजा और प्रजा प्रसन्न हों, मुझे दक्षिणा दें और मैं परिवार का सही संचालन कर सकूँ। “
पत्नी, “तो क्या आपने भगवान पर भरोसा किया?”
पंडित को बात समझ में आ जाती है, वह इस श्लोक पर मनन करने के पश्चात् निश्चय करता है की वो राजा के दरबार में कल नहीं जायेगा। सिर्फ श्रीकृष्ण आराधना ही करेगा ऐसा मन बना लेता है। अब कृष्ण की जैसे मर्जी वो वैसे ही रह लेगा।
अगले दिन राजा पंडित को दरबार में न पाकर अपने दूत को पंडित के घर भेजता है और पंडित दरबार में जाने से मन कर देता है, “राजा से कह देना मैंने श्लोक का अर्थ समझ लिया है और अब में खुद को श्रीकृष्ण पूजन मनन व चिंतन में समर्पित कर दिया है। “
राजा दूत की बात सुनते ही नंगे पाँव पंडित के पास पहुंचता है, उसके चरणों में गिर जाता है और उसे अपना गुरु बना लेता है।
आप भी स्वयं को भगवान् के चिंतन मनन में एक बार कुछ दिनों के लिए ही सही लगा के तो देखिये। कुछ समय श्रीकृष्ण भाव के साथ ज़िंदगी जी कर तो देखिये।
एक तू ही भरोसा, एक तू ही सहारा, अब तेरे सिबा कोई न दूजा हमारा। मैं बस तुम्हारा चिंतन करूँ फिर मुझे किस बात की चिंता – हे कृष्ण गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वसुदेवाय।

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