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श्रीकृष्ण कहते हैं

The Joy Of Service: A Life-changing Story

In Conversation with God Krishna, I asked: “Why am I always in the want mode? When I don’t get what I want, I feel miserable, and when I exactly get what I want, I still feel bad because I feel I have limited my want so little.”
God Krishna said, “It’s because you are always in “I” mode. I want a house. I want a beautiful spouse. I want a car. I want success. You are no worth more than a beggar. Even if you have enough, you always want, want, and want. It’s because you have not experienced the joy of service. For all such want-mode people, they suffer bigger hardships.”
I further asked, “Joy of Service? What can I serve when I don’t have enough?”
God said, “There are four ways that people feel the joy of service: Some give their work to the divine, which is doing your work and surrendering it to the feet of God. Some give their life, surrendering their bodies to the holy feet of the divine; some offer their wealth to serve the common good, and the ultimate man gives their soul to the service.
You look at nature; all of them are always offering their service without any want of their own. Just try to live like nature to experience the joy of service.
March forward with a common goal. March forward with open-mindedness and working together in harmony. March forward to sharing your thoughts on integrated wisdom. March forward following the example of our ancestors, who achieved higher goals by virtue of being united.”
श्री कृष्ण अर्पणमस्तु।

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The learned neither laments for the dead nor the living

Bhagwad Gita Chapter 2, verse 11, God Krishna says to Arjuna, “You are mourning for those not worthy of sorry; yet speaking like one learned. The learned neither laments for the dead nor the living.”
The root cause of our pain is categorising worldly matters between “MINE”and “OTHERS”. We have divided everything around us into these; it’s my family, and that’s not my family, it’s’s my creed, and that’s not my creed; it’s my re not my cast, religion, and that’s not my religion, my cast and that. But in truth, we are all connected, part of the same whole.
Then, we develop emotions, feelings, desires, and expectations based on what we think is mine. This emotional attachment causes fear, greed, infatuation, worries, and tensions when we do not see ours in the frame we want to see it.

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गुरु वचनों के श्रवण से ही ज्ञान की प्राप्ति संभव है

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“गुरु वचनों के श्रवण से ज्ञान की प्राप्ति होती है और अर्जित ज्ञान का जब हम मनन, साक्षात्कार बोध और अभ्यास के माध्यम से सम्पूर्णता से ग्रहण करते हैं तो वह विज्ञान हो जाता है।
जिनमें ज्ञान और विज्ञान दोनों की स्थापना हो जाती है वैसे परमज्ञानी पुरुष के लिए धूल, पत्थर, सोना सब एक समान हो जाता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं की ऐसे परमज्ञानी योगी को हममें, तुममें, खड्ग, खंभ में।घट, घट सिर्फ़ ईश्वरीय ऐश्वर्य की ही अनुभूति और अनुभव होती है।”

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श्री कृष्ण कहते हैं: जो व्यक्ति मुझे जान लेता है उसे शांति प्राप्त हो जाता है

श्री कृष्ण कहते हैं:
“भक्तों द्वारा किए गए सारे यज्ञों और तपों के भोक्ता, सम्पूर्ण ब्रह्मांड के महान ईश्वर एवं सभी प्राणियों के मित्र  के रूप में जो व्यक्ति मुझे जान लेता है उसे शांति प्राप्त हो जाता है।”

किसी ने भजन कर लिया, किसी ने ध्यान कर लिया, किसी ने पूजा कर ली, किसी ने नाम स्मरण कर लिया, किसी ने यज्ञ कर लिए — चाहे जो भी किए जैसे भी किए सबके भोक्ता भगवान ही हैं। सिर्फ़ शर्त यही है की भाव भक्त का होना चाहिए।

किसी का सहारा बन गये, किसी की भूख मिटा दिये, किसी के दर्द की दवा कर दिए, किसी के आंसू पोंछ दिए, किसी के सपने सच कर दिये, किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट का कारण बन गये, इत्यादि सत्कर्मों के भोक्ता भी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही हैं।

वह जो अच्छे बुरे सभी परिस्थितियों में साथी सहायक बने, वह जो समर्थक और शुभचिंतक है, वह जो सब प्रकार से अपने अनुरूप रहे, वह जो प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों में हित ही चाहे — श्रीकृष्ण कहते हैं तुम मुझे सभी प्राणियों का मित्र मान लो।

अभी से श्रीकृष्ण के इस वचन को गठरी में बांध लीजिए की वे ही हमारे प्रथम, एकमात्र और सर्वोपरि मित्र हैं, हमें तो केवल भक्ति का रिश्ता निभाते रहना है।

ॐ शान्ति: शांति: शांति:

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दुख के कारण क्या क्या हैं

श्रीकृष्ण कहते हैं: “इंद्रियों और विषयों के संयोग से पैदा होनेवाला सुख आदि अंत वाले और दुःखके कारण हैं। अत: बुद्धिमान पुरुष उनमें मन नहीं रमाते।”
आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा और मन ये छह इंद्रियाँ सतत ही विषयों का भोग मिले इसके लिए लालायित रहते हैं बिलकुल मोबाइल फ़ोन के अंटेना की तरह बल्कि उससे भी तीव्र। अगर विज्ञान की भाषा से देखें तो इनकी ग्रहण शक्ति बाक़ी सारे अंटेनाओं से काफ़ी ज़्यादा हैं। आँख देखने के लिए, कान मधुर वचन सुनने के लिए, नाक सुगंध के लिए, जिह्वा स्वादपूर्ण भोजन के लिए, त्वचा स्पर्श के लिए तो मन भोग विलास मय विचारों में  लीन रहने के लिए।

ज़रा सोचिए — आपको रसगुल्ला खाने की इच्छा है, सामने रसगुल्लों से भरा प्लेट आ जाए। आप को ५ १० रसगुल्ले तो बड़े अच्छे लगेंगे लेकिन आपसे १०० रसगुल्ले खाने को कहा जाए तो वह सुख देने वाला होगा या दुःख? इसी तरह, आपका प्रेमी आपसे एक दो बार “आई लव यू” कहने की जगह हार २ मिनट में “आई लव यू कहना शुरू करदे तो आप तो पागल ही जो जाओगे ना।

इसीलिए श्रीकृष्ण यहाँ चेताते हैं की बुद्धिमान पुरुष इंद्रियों और विषयों के भोग से प्राप्त होने वाले स्थिति में मन नहीं रमाते। आप क्या कर रहे हैं? सोचिएगा।

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गुणों और कर्मो के हिसाब से ही वर्णों का विभाजन

श्रीकृष्ण कहते हैं: “गुणों और कर्मों के हिसाब से मैंने ही चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की रचना की है। पर मुझे कर्म लिप्त नहीं करते क्योंकि कर्म फल की चिंता नहीं करता।

यहाँ कहीं भी यह नहीं कहा गया है की क्योंकि तुम एक ख़ास वर्ण में पैदा हो गए इसलिए तुम बड़े हो गए या तुझे इसका घमंड करना चाहिए। आज की करियर सफलता की जितनी भी विधाएँ हैं सब यही सुझाते हैं की तुम वह काम करो जिसमें तुझे रुचि हो, करने में मज़ा आए और प्रसन्नता मिले ।

जिनमें विद्या अर्जन, बुद्धि विकास, और ज्ञान मार्ग में अधिक रुचि है वो ब्राह्मणत्व वाला कार्य करें। जिनमें शारीरिक क्षमता और शक्ति के पथ पर चलने की इच्छा हो वो राष्ट्र और रक्षा सम्बन्धी कार्य को करें। जिन्हें धन अर्जन का शौक़ हो वो वैश्य (उद्दमी) का कार्य करें और जिन्हें सेवा सहायता के क्षेत्र में कौशल हो तो वो शूद्र (सेवा) का कार्य करें।
सफलता का मूल मंत्र ही यही है की यदि एक व्यक्ति एक प्रकार का कार्य पूरा मन लगाकर करता है, तो उसमें कुशलता और विशेषज्ञता मिल जाती है ।। बार- बार कार्य को बदलते रहने से कुछ भी लाभ नहीं होता, न काम ही अच्छा बनता है।

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समदर्शी ज्ञानी पुरुष ब्राह्मण में चाण्डाल में तथा गाय हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखते हैं

श्रीकृष्ण कहते हैं “समदर्शी ज्ञानी महापुरुष विद्याविनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्माको देखनेवाले होते हैं।”

हमारी सामाजिक प्रथा मानव को जाती के आधार पर बाँटती है तो पशुओं को योनि के आधार पर। यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं की जो आध्यात्मिकता के बल से समदर्शी हो गए हैं वो जाती वर्ग, धर्म चरित्र स्वभाव व्यवसाय रोज़गार इत्यादि द्वारा मानव और जानवर में भेद नहीं करते। जैसे सूरज की रोशनी सब के लिए बराबर है। जैसे वर्षा सब जगह बराबर होती है। जैसे हवा समान रूप और गति से सब जगह उपलब्ध है

मुझे एक कहानी याद आ रहा है। इंद्र अपनी सभा में राजा श्रेणिक के समदर्शिता की प्रसंशा कर रहे थे। एक देवता से सुना न गया। उन्होंने श्रेणिक की परीक्षा लेने के लिए धरती लोक पर आए।वो साधु का रूप बनाकर तालाब में मछली मारने का नाटक करने लगे। थोड़ी देर में श्रेणिक जब उधर से गुजरे तो उन्होंने आपत्ति जतायी “अरे! आप यह क्या अपकर्म कर रहे हैं?

साधु ने जवाब दिया “मैं धर्म अधर्म नहीं जानता। मैं इन मछलियों को बेचूँगा और जाड़े के लिए कम्बल खरीदूँगा।”

राजा श्रेणिक बिना कोई जवाब दिए वहाँ से चल दिए।

देवता वापस आकर इंद्र से बोले “श्रेणिक सचमुच में साधु है — उसने पापी असदाचार की निंदा एवं उनसे घृणा करना भी छोड़ दिया है।”

वही लोहा पूजा में भी और बधिक के काम भी आता है।
नाले का पानी जब गंगाजल में मिल जाता है तो गंगाजल बन जाता है।

एक ही पत्थर भगवान की मूर्ति और नारियल तोड़ने के लिए उपयोग किया जाता है।

समदर्शी बनिए भेद भाव छोड़िए।

आत्मा तथा परमात्मा के लक्षण समान हैं दोनों चेतन, शाश्र्वत तथा आनन्दमय हैं | अन्तर इतना ही है कि आत्मा शरीर की सीमा के भीतर सचेतन रहता है जबकि परमात्मा सभी शरीरों में सचेतन है | परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान है।

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तत्त्वज्ञान से ही परमात्मा दर्शन

श्री कृष्ण कहते हैं ^हे पार्थ जब तुम तत्वज्ञान को प्राप्त कर लोगे तो तुममें जो यह मोह माया है वह नहीं रहेगी और तुम सम्पूर्ण प्राणियों को अपने आत्म स्वरूप में तथा मुझमें देखोगे।”
पहले श्रीकृष्ण कहते हैं कि गुरुसे विधिपूर्वक श्रवण मनन और निदिध्यासन के द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेपर तुम सबसे पहले अपने स्वरूपमें सम्पूर्ण प्राणियोंको देखने लगते हो। सब मैं ही हूँ और सबमें मेरे ही अंश है। फिर जब हम सत्संग, ध्यान, धारणा इत्यादि प्रक्रियाओं द्वारा ईश्वरीय तत्व को समझ लेते हैं फिर तुम्हारी यात्रा तत्वमय स्वयम से ईश्वरमय में विलीन हो जाती है। फिर तेरा मेरा का फेर छूट जाता है। तुम्हारा क्या है जो तुझे खोने का डर है। तुमने क्या पैदा किया है जिसके नष्ट होने से तुम दुखी होओगे। न कोई उमंग है। न कोई तरंग है।  द्वैत अद्वैत से भी परे अहं ब्रह्मास्मि में स्थित हो जाओ इसे श्रीकृष्ण तत्वज्ञान कहते हैं।

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ज्ञान प्राप्ति के योग्य गुरु कौन है

श्रीकृष्ण कहते हैं “अपने आप को सम्पूर्ण समर्पित कर नम्रता, सरलता और जिज्ञासु भाव से ऐसे गुरु जिन्हें आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान हो तथा जो अनंत स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थित हो उनके पास जाकर ज्ञान प्राप्ति कर।”

गुरु वह है जो अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाए। क्योंकि हम ज़िंदगी में कई बार ऐसे दुर्गम स्थिति से गुजरते हैं जहां हमारे लिए सही सोचना, सही समझना और समुचित निर्णय लेना दूभर हो जाता है। अर्जुन भी काफ़ी परेशान था और पशोपेश में था।
दो जगह हमें गुरु की आवश्यकता का बहुत ही सुंदर परिचय मिलता है — (क) जब राम सबरी के आश्रम में आते हैं तो सबरी उन्हें पहचान नहीं पाती और कोई छलिया समझकर भाग देती हैं तो उसी समय उनके गुरु मतंग मुनि जी प्रकट होते हैं और कहते हैं “ऐ सबरी यही तो तुम्हारा राम है।” (ख) जब तुलसीदास जी के पास राम लक्ष्मण बाल रूप में आते हैं और चंदन लगा देने कीं ज़िद्द करते हैं तो वो उन्हें भगाते हैं तभी हनुमान जी आकर उन्हें कहते हैं “ये भगवान राम और लखन स्वयं ही बालरूप में हैं” आपने सुना ही होगा “चित्रकूट के घाट पर लगे संतान की भीर। तुलसीदास चंदन रगड़े तिलक करे राम रघुवीर।”
ज़िंदगी में जब भी प्रश्न या परेशानी हो तो सब से पहले “गुरु से निदान का आग्रह कीजिए, अगर गुरु ना हों तो शास्त्र में सुझाए गए उपाय का अनूशरण कर लीजिए और वह भी उपलब्ध न हो तो अपने हृदय की आवाज़ सुनकर निर्णय ले लीजिए लेकिन कभी भी किसी अनभिज्ञ मानव के सलाह से निर्णय मत लीजिए।”

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जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ

श्रीकृष्ण कहते हैं: “हे पार्थ जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गका अनुकरण करते हैं।”

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: || 11||

देवकी और वसुदेव जो पूर्वजन्म में प्रिश्रि और सुतपा थे उन्होंने “मुझे आप जैसा संतान मिले” यह माँग लिया। उन्होंने भगवान से कुछ मांगने के जगह भगवान को ही माँग लिया।

राधा ने उन्हें अपनी प्रेमी के रूप में मन और हृदय में बसा लिया।

द्रौपदी के लिए सखा अर्जुन के लिए पथप्रदर्शक

सूरदास जी ने कृष्ण के बालरूप को ही अपना लिया उन्हें बड़ा होने ही नहीं होने दिया।

मीरा ने अपना सर्वश्व मानकर सबकुछ समर्पण कर दिया।

कई के लिए भगवान तो कहीं नारायण।

कुछ भुक्ति के लिए शरण का आश्रय ले लिया कुछ ने मुक्ति के लिए चरण में न्योछावर हो लिए।

कुछ दुर्योधन जैसे भी हुए जिन्होंने नारायणी सेना की तरह धन, संपती, सुख, वैभव, इत्यादि जैसी वस्तुएँ माँग ली और और मोती छोड़ कौड़ी से खुश हो गए।
पढ़िए। सोचिए। स्मरण कीजिए। आपको शरणागत के शरण में कैसी शरणागति चाहिए।

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ईश्वरीय भाव कैसे प्राप्त करें

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“राग भय और क्रोधसे सर्वथा रहित मेरे में ही तल्लीन मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तपसे पवित्र हुए बहुतसे भक्त मेरे भाव को प्राप्त हो चुके हैं।”

यहाँ श्रीकृष्ण ने कृष्णमय होने का उपाय बताया है। सर्वप्रथम तो इस बात की गारंटी दे रहे हैं कि मेरे में तल्लीन होकर, मेरे पर आश्रित होकर और ज्ञान से परिपूर्ण ताप द्वारा पवित्र होकर लोग मेरे स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं। लेकिन  शर्त भी यह हैं कि मुझमें भाव प्राप्ति से पहले  राग, भय और क्रोध को छोड़ना ही होगा। राग छोड़ने के लिए निष्काम कर्म, भय दूर करने के लिए अपने कर्म को ईश्वरीय आज्ञा मानकर पूरा करना और क्रोध से मुक्ति के लिए सर्वत्र ईश्वरीय अनुभूति को विकसित करना ही एकमात्र उपाय है।

एक बार मुझे क्या कमी है ऐसा मन बनाकर जी कर देखिए। एक बार मुझे किसी चीज़ से कोई दरकार नहीं है ऐसा विचार करके देखिए। एकबार ग़ुलाम की तरह नहीं बल्कि गुल्फ़ाम की तरह मन बनाकर जिएँ।

यही मार्ग तुलसीदास जी ने भी तो रामायण में कहा ही है: “प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।”

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भावनाओं पर नियंत्रण ही अमरत्व के योग्य बनाते हैं

श्रीकृष्ण कहते हैं:

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते || 15||

“वे बलवान और बुद्धिमान पुरुष, जिनके लिए सुख और दुख समान हैं, और जो इससे पीड़ित नहीं होते, अमरत्व के योग्य हो जाते हैं।”

हमारे शारीरिक और मानसिक अनुभव देश, काल और परिस्थितियों से काफी ज्यादा निर्देशित हैं। अभी जब आप यह पढ़ रहे हैं यदि इस वक़्त आपके आस पास सर्दी है और आपने गर्म कपडे नहीं पहने हैं तो आपको ठण्ड महसूस हो रही होगी। लेकिन ठीक उसी जगह अगर कोई ठण्ड कपडे पहने हुआ है तो उसे इतनी ठंड नहीं लग रही होगी जितनी की आपको। 

ठीक सर्दी और गर्मी के एहसास की तरह ही सुख दुख हानि लाभ इत्यादि भी क्षणिक अनुभव मात्र हैं। इनसे उत्प्रेरित भावनाएं स्थायी नहीं होती। वे आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी स्थिति हमेशा नहीं रहती।

हमारी तेज-तर्रार दुनिया में हम अक्सर आराम, सफलता और खुशी की तलाश में रहते हैं। लेकिन क्या होगा अगर सच्चे सुख की कुंजी हमारे दर्द और सुख के प्रति दृष्टिकोण में छुपी हो? 

मैं जब भी इस श्लोक पर मनन चिंतन करता हूँ तो मुझे बचपन में सुनी हुई एक कहानी याद आ जाती है। 

एक छोटे से गांव में रहने वाला रसिकलाल नाम का किसान दिन रात अपने खेतों में मेहनत करके अच्छी फसल उगाता। उसकी आर्थिक चालक काफी अच्छी थी। फिर भी यदि कभी बारिश या किसी प्राकृतिक आपदा के कारण उसकी फसल अच्छी नहीं होती तो वह काफी उदास हो जाता।

एक दिन उसके गांव में एक साधु महाराज आये। साधु महाराज अपने ज्ञान और विचारशीलता के लिए काफी प्रसिद्ध थे। रसिकलाल महात्मा के पास गए और उसे अपनी परेशानियों का उल्लेख किया। 

महात्मा ने उसे अगले दिन सुबह फिर से आने को कहा। रसिकलाल महात्मा के सुझाव को मानते हुए फिर से अगले दिन सुबह महात्मा के पास पहुंच गया। 

थोड़ी देर बाद महात्मा रसिकलाल के पास आये। उन्होंने रसिकलाल के हाथों में एक मटकी और कुछ उजले और कुछ काले रंग के पत्थर के टुकड़े थमाते हुए बोले: “आज से जब भी खुश महसूस करो तो एक उजला पत्थर का टुकड़ा लेकर इस मटकी में डाल देना और जब भी दुखी महसूस करो तो एक काला पत्थर। जब मैं अगली बार इस गांव में आऊंगा तो तुमसे मिलकर आगे की बात करेंगे”

रसिकलाल ने हामी भरते हुए मटकी और पत्थर अपने हाथ में थाम लिया और अपने घर चला गया। 

वह महात्मा के आज्ञानुसार जब भी खुश होता तो एक उजला पत्थर और जब भी दुखी होता तो एक कला पत्थर उस मटकी में डाल देता। जब उसे अच्छी फसल मिलती या परिवार में खुशी का माहौल होता, तो वह सफेद पत्थर डाल देता। और जब फसल खराब होती या किसी परेशानी का सामना करना पड़ता, तो वह काला पत्थर डाल देता।  धीरे-धीरे, उनकी मटकी सफेद और काले पत्थरों से भरने लगी।

कुछ महीनों बाद महात्मा फिर से गांव में आये।  रसिकलाल अपनी मटकी लेकर महात्मा से मिलने गया। महात्मा ने उसे मटकी से पत्थरों को उलटकर सफ़ेद और काले पत्थरों को अलग अलग गिनने के लिए कहा। 

रसिकलाल ने गिनना शुरू किया और उसे ज्यादा ख़ुशी वाले पत्थर उससे थोड़े काम दुखी वाले काले पत्थर मिले। 

महात्मा ने हंसते हुए किसान से कहा, “देखो, तुम्हारी जिंदगी में सुख और दुःख दोनों ही लगभग बराबर मात्रा में ही हैं। यहाँ तक की तुम्हारी ख़ुशी दुःख से कहीं ज्यादा ही है.”

किसान ने सिर झुकाकर पूछा, “लेकिन गुरुदेव, मैं अब भी दुखी और परेशान क्यों महसूस करता हूँ जब कोई दुखद घटना घटती है?”

महात्मा ने उत्तर दिया, “क्योंकि तुम अभी भी सुख और दुःख को अलग-अलग रूप में देख रहे हो। तुम सुख में बहुत अधिक डूब जाते हो और दुख में भी बहुत अधिक। तुम्हें समझना होगा कि सुख और दुःख जीवन का हिस्सा हैं, और दोनों को समान रूप से स्वीकार करने से ही तुम सच्चे संतोष और शांति को प्राप्त कर सकते हो। जब तुम्हें यह समझ आ जाएगी कि दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं, तो तुम अपने जीवन के हर क्षण का सामना बिना किसी पीड़ा के कर सकोगे।”

गीता के इस उपदेश से श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, बुद्धिमान और सशक्त पुरुष ख़ुशी के क्षण में न तो अत्यधिक इतराते हैं और न ही दुःख के पलों में बिचलित ही होते हैं। वे जीवन में जो भी आता है, उसके बावजूद संतुलन और शांति की भावना बनाए रखते हैं। और यही कारण है की वो अमरत्व के उत्तराधिकारी हो जाते हैं। 

यहाँ श्रीकृष्ण हमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों अनुभवों को शांत स्वीकृति की भावना से देखना सीखकर ही हम खुद को अपनी भावनाओं द्वारा नियंत्रित जाल में फ़साने से मुक्त कर सकते हैं ऐसा ज्ञान देते हैं।

यहाँ अमरत्व को भी ठीक से समझ लेना जरूरी है। यहाँ अमरत्व का मतलब जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति नहीं है बल्कि आत्म शक्ति और आत्मज्ञान की वह अवस्था जहाँ हम चिंताओं और भय से परे हो जाते हैं। यह एक ऐसी मानसिकता का विकास  करने के बारे में है जो रोजमर्रा के जीवन के उतार-चढ़ाव से विचलित नहीं होती।

हमें हमारी भावनाओं पर नियंत्रण सिर्फ सतत प्रयास से ही प्राप्त हो सकती है:

  1. माइंडफुलनेस का अभ्यास करें: अपनी भावनाओं को तुरंत प्रतिक्रिया दिए बिना देखना सीखें।
  2. कृतज्ञता विकसित करें: अच्छे समय की सराहना करें बिना उनसे अत्यधिक जुड़े हुए।
  3. लचीलापन विकसित करें: चुनौतियों को आपदा के बजाय विकास के अवसर के रूप में देखने का प्रयास करें।
  4. संतुलन खोजें: भावनाओं के चरम सीमाओं के बीच झूलने के बजाय एक स्थिर दृष्टिकोण बनाए रखने का प्रयास करें।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि सच्ची ताकत कभी दर्द महसूस न करना या हमेशा खुश रहना नहीं है। यह जीवन के सभी अनुभवों के प्रति एक शांत, संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने के बारे में है। इस दिशा में छोटे कदम से ही हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर सकते हैं और हमारे जीवन में अधिक शांति और संतोष ला सकते हैं।

आप क्या सोचते हैं? क्या आपने कभी किसी ऐसे व्यक्ति से मिले हैं जो इस तरह के भावनात्मक संतुलन को प्रदर्शित करता प्रतीत होता है? यदि आप खुशी और दुःख दोनों को एक ही स्थिर मानसिकता से देख पाते, तो आपका जीवन कैसे अलग हो सकता था?

अपनी राय जरूर दीजियेगा। 

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साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालों का विनाश

श्रीकृष्ण कहते हैं:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
“मैं साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालोंका विनाश करने के लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युगयुग में प्रकट हुआ करता हूँ।”
यह एक बहूत बड़ी gauranti है ईश्वर के तरफ से कि जब भी अधर्म, अन्याय, पाप हावी होने लगेगा तो मैं आकर उनका विनाश करूँगा।
साधुता कामनाओ का विनाशक है। साधुता धर्म का विस्तारक है। साधुता स्वयं का उद्धार और लोगों का उद्धार है। साधुता सृष्टि के समस्त जड़ और चेतन के उपकार हेतु सतत प्रयत्नशील रहना है।
तो जब भी हम साधुता के पथ से भटकते हैं तो हमारी आत्मा हमे कचोटती है कि यह ठीक नहीं है लेकिन कामनाओं के प्रचंडता के कारण आत्मानुभूति दब जाती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जब तू धर्म की हानि करेगा और अधर्म को प्रभावित तब तब मैं प्रगट होऊँगा और तुझे फिर से धर्म मार्ग पर लेकर आऊँगा।


“मैं साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालोंका विनाश करने के लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युगयुग में प्रकट हुआ करता हूँ।”


यह एक बहूत बड़ी गारंटी है परमात्मा के तरफ से कि जब भी अधर्म, अन्याय, पाप हावी होने लगेगा तो मैं आकर उनका विनाश करूँगा।

साधुता का मतलाब यहां कामनाओ के विनाशक से है। साधुता धर्म का विस्तारक है। साधुता स्वयं का उद्धार और लोगों का उद्धार है। साधुता सृष्टि के समस्त जड़ और चेतन के उपकार हेतु सतत प्रयत्नशील रहना है।

तो जब भी हम साधुता के पथ से भटकते हैं तो हमारी आत्मा हमे कचोटती है कि यह ठीक नहीं है लेकिन कामनाओं के प्रचंडता के कारण आत्मानुभूति दब जाती है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जब तू धर्म की हानि करेगा और अधर्म को प्रभावित तब तब मैं प्रगट होऊँगा और तुझे फिर से धर्म मार्ग पर लेकर आऊँगा।

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मेरे पिता मेरे गुरु मेरे सर्वस्व

पिता स्वर्ग: पिता धर्म: पिता ही परमं तप:।
पितरीप्रतिमपनये प्रियन्ते सर्व देवता।।
पिता तो सभी अच्छे ही होते हैं हर संतान के लिए सबसे सदैब साये की तरह साथ रहने वाला आसमा से भी विस्तृत छाया।

मेरे पिता मेरे गुरु मेरे सर्वस्व। आज जो भी हूँ बस आपकी शिक्षा, आपके मूल्यों औऱ आपके द्वारा निर्धारित किये गए सांसारिक मापदंडों के पथ पर अग्रसर रहते रहने का फल ही तो है।

हर सुबह जब पूजा के आसन पर बैठकर “मातृ पितृ चारणकामलेभ्यो नाम:” कहता हूँ तो इस विश्वास को और बल मिलता है कि आज कल से बेहतर होगा।
मुश्किल कर पल में जब कोई राह नहीं दिखती तो नस यही सोचकर कि आप होते तो क्या सलाह देते यह सोचकर निर्णय ले लेता हूँ आउट सब ठीक ही होता है।

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

श्रीकृष्ण का यह कहना कि “: यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥2/20।” अक्षरशः सत्य ही तो है।

मेरे मन मे मेरे तन मैं मेरे बातो मैं विचारों में आओहि तो हैं ओहिर क्या की नश्वर शरीर को चीर परिचित मुलाकात और व्यवहार का पर्याप्त सुखद  अवसर नहीं मिला।

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मैं स्वयं की योगमाया से प्रकट होता हूं

“मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।”

परमपिता परमेश्वर का प्राकृतिक स्वभाव है की उनकी जब इच्छा हो जाए और जो स्वरूप भा जाए वो उस रूप में प्रकट हो जाते हैं। वो अंधेरा दूर करने के लिए सूर्य की रोशनी हैं, वो प्राणियों के हृदय में आत्मा रूपी रोशनी हैं, उनका प्रकाश स्वरूप है, उनका प्राकट्य सत्य है, वो वायु के रूप में यत्र तत्र सर्वत्र व्याप्त हैं, सारी क्रियाओं के सम्पादक हैं, सारी इच्छाएँ उन्ही से उत्प्रेरित हैं, सारे गंध और सारे स्वाद में वही परमेश्वर हैं।

अपनी इसी प्रकृति के कारण तो वो हेग्रिव को मारने के लिए मत्स्य बन जाते हैं, समुद्र मंथन द्वारा देवताओं को अमृतत्व १४ रत्न मिल जाए इसके लिए कच्छप, पृथ्वी को जल से बचाने के लिए वराह, प्रह्लाद की रक्षा के लिए नरसिंह, त्रिलोक को बलि से मुक्त करने के लिए वामन रूप, अहंकारी क्षत्रियों के नाश के लिए परशुराम, रावण वध और संसार को मर्यादापुरुषोत्तम का पाठ सिखने हेतु राम रूप, निष्काम, कर्मयोगी, दार्शनिक व संपूर्णावतार के रूप में कृष्ण, और बुद्ध के रूप में प्रकट हुए हैं।

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