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धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥1॥

भगवद गीता की अमृतवाणी यहीं से प्रारम्भ होती है — धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से। धृतराष्ट्र जो प्रतीक हैं उस मन का जो मोह, अहंकार, भय, घृणा, और तेरा-मेरा के अंधेपन से ग्रसित है।

संजय जिसे दिव्यचक्षु प्रदान किया गया है ताकि वह युद्धभूमि से दूर रहकर भी युद्ध के बारे में सबकुछ बता सके, आज के ज़माने के टीवी की तरह, दूर देश में हो रही घटना आप घर के टीवी स्क्रीन पर देख सकते हैं।

धृतराष्ट्र पूछते हैं : “संजय, मुझे वो सब बताएं जो मेरे पुत्र(मेरा) और पाण्डु पुत्र(तेरा) धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में किया?”

यह थोड़ा विचित्र है। अभी तक युद्ध शुरू भी नहीं हुई और धृतराष्ट्र पूछ रहे हैं “क्या किया?”

यह इस तथ्य का परिचायक है की शंकित मन परिणाम का पहले ही से अंदाजा लगा लेता है, बस उसे इसकी पुष्टि चाहिए।

अब ज़रा युद्ध, रथ और शंखों की आवाज़ को कुछ देर के लिए भूल जाएँ।अपने मन स्थिति को टटोलें।

आप पाएंगे की इस क्षण भी जब आप यह पढ़ रहे हैं, आप कई सारे दुविधाओं, समस्याओं के परिणाम की परिकल्पना कर चुके होंगे और मन में परिणाम की  धारणा भी बना चुके होंगे।

किसी ने रंग रूप का अपमान मिला, तो मैं दुखी हो गया,

व्यवसाय या कार्य में क्षति हो गयी, तो मैं अब बर्बाद हो  गया,

सभी अपने छोड़कर चले गए, मेरी जिंदगी तन्हा हो गयी,

काम धंधा ठीक से नहीं चल रहा, जीना दूभर हो रहा है,

अच्छी शिक्षा नहीं मिली, मैं किसी भी काम के लायक नहीं हूँ,

मेरे दाम्पत्य जीवन में क्लेश है, मैं अंदर ही अंदर टूट चुकी हूँ,

रात में नींद नहीं आती, जब आती है तो बार बार टूट जाती है,

बच्चे बात नहीं सुनते, परेशानी का कोई अंत ही नहीं है,

कितना भी करूँ, काम कभी ख़त्म ही नहीं होता,

परीक्षा के समय डर लगता है, मेरा आत्मविश्वास हिला हुआ है,

यही है आज का कुरुक्षेत्र। हर तरफ हर जगह परेशान आदमी।

और इन कठिनाइयों और परेशानियों से जूझते शरीर और मन को आत्मा का तो ख्याल ही नहीं है।

भगवद गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में ही हमें यह प्रतीति हो जाती है की जिंदगी धर्मक्षेत्र से विच्छेदित और कार्यक्षेत्र (जीवन की भागदौड़) में उलझे हुए जीवन को शांत, जागरूक, निर्मल बनाने की सर्वोत्कृष्ट प्रक्रिया की उपायों को उद्धृत करती है।

तो, यदि आप हर सुबह जब उठते हैं — आप खड़े होते हैं एक ऐसे ही दोराहे पर।

एक मन कहता है: “मुझे जीतना है, दुनिया पर राज करना है,  साबित करना है, सब पर नियंत्रण चाहिए।”

और आत्मा कहती है: “सच के साथ खड़े रहो, फल की चिंता मत करो।”

यही है आत्मा और कर्म के बीच की खींचतान।

आप कर्म के जंजाल में उलझें आत्मा को भूल ही चुके हैं — जिस कारण चिंता, भय, शोक, तुलना और थकावट ही रह गयी है। आप इस अनमोल जीवन को कौड़ी के भाव क्षण क्षण लुटाते जा रहे हैं।

आप सोच रहे होंगे, धर्मक्षेत्र में रहने से क्या हम वह सब कर पाते हैं जो आत्मा चाहती है?

फिर आपका प्रश्न होगा, आत्मा क्या चाहती है ?

आत्मा कुछ नहीं चाहती — क्योंकि आत्मा ही सर्वस्व है, यही सब कुछ है।

जब हम पर से  शरीर-बुद्धि का आवरण उतरता है, तब आत्मा हमें यह पता चलाती है:

मैं मुक्त हूँ — बस जान नहीं पाए थे।

मुझे सिर्फ कर्म करना है – पर बांध नहीं जाना है।

मैं शरीर नहीं — शुद्ध चेतन आत्मा हूँ।

आत्मा की कोई चाह नहीं, बल्कि उसका प्रकाश है — जो हमें बाहर नहीं, भीतर खींचता है।

हम कर्म नहीं हैं, हम वो हैं जो कर्म को देख रहे हैं।

हम जीव है, जीव रक्षा के लिए कर्म ज़रूरी हैं — पर आत्मा उनसे अछूती रहती है।

हमें कर्म करना है पर कार्यकर्ता का अहंकार नहीं पलना है।

हमें अपने कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र बनाना है।

और यही — गीता का कर्म ज्ञान और  आत्म-ज्ञान है।

तो  अभी इसी क्षण आप आँखें बंद कर लीजिये।  आपके जीवन में जो भी चुनौती, दुविधा, या तनाव है —

उन्हें याद करें और ये सोचने की बजाय: “अब मुझे क्या करना चाहिए?”

पहले यह पूछिए की: “मैं इस वक़्त जहाँ खड़ा हूँ, उसमें मुझे एक मुड़ाव लेकर वह क्या है जो सबसे अच्छा होगा ताकि मेरे आत्मा को स्थिरता, शुद्धता, शांति और पूर्णता प्रदान करेगा?”

आपके यही सवाल… आपका जीवन बदल सकता है।

आत्मा = अकर्ता, साक्षी, शुद्ध, अचल

आत्मा की चाह = केवल स्वरूप साक्षात्कार (आत्मबोध)

संसार का असर = तब ही जब आत्मा को देह-बुद्धि से जोड़ा जाए


 

जीवन में इसका प्रयोग कैसे करें?

हर दिन की शुरुआत में यही विचार करें:

“मैं शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ — जो केवल देख रही है।”

हर कार्य को करते हुए मन में हो:

“यह कार्य प्रकृति कर रही है, मैं नहीं।”

कार्यक्षेत्र में रहते हुए धर्मक्षेत्र के सिद्धांतों का पालन कीजिये। क्रमशः आपके भाव और भावना भावना स्थिर होती जाएगी, तब भीतर की स्वतंत्रता जागती है। यही है — आत्मा की शांति। यही है — मोक्ष का मार्ग।

बस, यह पहचानना है कि जो कुछ भी बदल रहा है — वह आप नहीं बल्कि प्रकृति बदल रही हैं। वह आप नहीं हैं, आप सिर्फ़ एक ज़रिया हैं।

आप सिर्फ़ वो ही हैं — जो साक्षी हैं, शुद्ध हैं, मुक्त हैं।