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Ishwar Jha

Entrepreneur, Digital Media Specialist, Technology Innovator, Speaker & Blogger. I relish the vision of creating a collaborative and participatory platform that would help enrich the lives of people. My expertise includes; - Business model generation - Lean Startup - Customer Development - Digital Strategy - Technical Innovations - Digital Product design and development - Mentoring, coaching and inflection support for entrepreneurs

भावनाओं पर नियंत्रण ही अमरत्व के योग्य बनाते हैं

श्रीकृष्ण कहते हैं:

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |

समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते || 15||

“वे बलवान और बुद्धिमान पुरुष, जिनके लिए सुख और दुख समान हैं, और जो इससे पीड़ित नहीं होते, अमरत्व के योग्य हो जाते हैं।”

हमारे शारीरिक और मानसिक अनुभव देश, काल और परिस्थितियों से काफी ज्यादा निर्देशित हैं। अभी जब आप यह पढ़ रहे हैं यदि इस वक़्त आपके आस पास सर्दी है और आपने गर्म कपडे नहीं पहने हैं तो आपको ठण्ड महसूस हो रही होगी। लेकिन ठीक उसी जगह अगर कोई ठण्ड कपडे पहने हुआ है तो उसे इतनी ठंड नहीं लग रही होगी जितनी की आपको। 

ठीक सर्दी और गर्मी के एहसास की तरह ही सुख दुख हानि लाभ इत्यादि भी क्षणिक अनुभव मात्र हैं। इनसे उत्प्रेरित भावनाएं स्थायी नहीं होती। वे आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी स्थिति हमेशा नहीं रहती।

हमारी तेज-तर्रार दुनिया में हम अक्सर आराम, सफलता और खुशी की तलाश में रहते हैं। लेकिन क्या होगा अगर सच्चे सुख की कुंजी हमारे दर्द और सुख के प्रति दृष्टिकोण में छुपी हो? 

मैं जब भी इस श्लोक पर मनन चिंतन करता हूँ तो मुझे बचपन में सुनी हुई एक कहानी याद आ जाती है। 

एक छोटे से गांव में रहने वाला रसिकलाल नाम का किसान दिन रात अपने खेतों में मेहनत करके अच्छी फसल उगाता। उसकी आर्थिक चालक काफी अच्छी थी। फिर भी यदि कभी बारिश या किसी प्राकृतिक आपदा के कारण उसकी फसल अच्छी नहीं होती तो वह काफी उदास हो जाता।

एक दिन उसके गांव में एक साधु महाराज आये। साधु महाराज अपने ज्ञान और विचारशीलता के लिए काफी प्रसिद्ध थे। रसिकलाल महात्मा के पास गए और उसे अपनी परेशानियों का उल्लेख किया। 

महात्मा ने उसे अगले दिन सुबह फिर से आने को कहा। रसिकलाल महात्मा के सुझाव को मानते हुए फिर से अगले दिन सुबह महात्मा के पास पहुंच गया। 

थोड़ी देर बाद महात्मा रसिकलाल के पास आये। उन्होंने रसिकलाल के हाथों में एक मटकी और कुछ उजले और कुछ काले रंग के पत्थर के टुकड़े थमाते हुए बोले: “आज से जब भी खुश महसूस करो तो एक उजला पत्थर का टुकड़ा लेकर इस मटकी में डाल देना और जब भी दुखी महसूस करो तो एक काला पत्थर। जब मैं अगली बार इस गांव में आऊंगा तो तुमसे मिलकर आगे की बात करेंगे”

रसिकलाल ने हामी भरते हुए मटकी और पत्थर अपने हाथ में थाम लिया और अपने घर चला गया। 

वह महात्मा के आज्ञानुसार जब भी खुश होता तो एक उजला पत्थर और जब भी दुखी होता तो एक कला पत्थर उस मटकी में डाल देता। जब उसे अच्छी फसल मिलती या परिवार में खुशी का माहौल होता, तो वह सफेद पत्थर डाल देता। और जब फसल खराब होती या किसी परेशानी का सामना करना पड़ता, तो वह काला पत्थर डाल देता।  धीरे-धीरे, उनकी मटकी सफेद और काले पत्थरों से भरने लगी।

कुछ महीनों बाद महात्मा फिर से गांव में आये।  रसिकलाल अपनी मटकी लेकर महात्मा से मिलने गया। महात्मा ने उसे मटकी से पत्थरों को उलटकर सफ़ेद और काले पत्थरों को अलग अलग गिनने के लिए कहा। 

रसिकलाल ने गिनना शुरू किया और उसे ज्यादा ख़ुशी वाले पत्थर उससे थोड़े काम दुखी वाले काले पत्थर मिले। 

महात्मा ने हंसते हुए किसान से कहा, “देखो, तुम्हारी जिंदगी में सुख और दुःख दोनों ही लगभग बराबर मात्रा में ही हैं। यहाँ तक की तुम्हारी ख़ुशी दुःख से कहीं ज्यादा ही है.”

किसान ने सिर झुकाकर पूछा, “लेकिन गुरुदेव, मैं अब भी दुखी और परेशान क्यों महसूस करता हूँ जब कोई दुखद घटना घटती है?”

महात्मा ने उत्तर दिया, “क्योंकि तुम अभी भी सुख और दुःख को अलग-अलग रूप में देख रहे हो। तुम सुख में बहुत अधिक डूब जाते हो और दुख में भी बहुत अधिक। तुम्हें समझना होगा कि सुख और दुःख जीवन का हिस्सा हैं, और दोनों को समान रूप से स्वीकार करने से ही तुम सच्चे संतोष और शांति को प्राप्त कर सकते हो। जब तुम्हें यह समझ आ जाएगी कि दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं, तो तुम अपने जीवन के हर क्षण का सामना बिना किसी पीड़ा के कर सकोगे।”

गीता के इस उपदेश से श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, बुद्धिमान और सशक्त पुरुष ख़ुशी के क्षण में न तो अत्यधिक इतराते हैं और न ही दुःख के पलों में बिचलित ही होते हैं। वे जीवन में जो भी आता है, उसके बावजूद संतुलन और शांति की भावना बनाए रखते हैं। और यही कारण है की वो अमरत्व के उत्तराधिकारी हो जाते हैं। 

यहाँ श्रीकृष्ण हमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों अनुभवों को शांत स्वीकृति की भावना से देखना सीखकर ही हम खुद को अपनी भावनाओं द्वारा नियंत्रित जाल में फ़साने से मुक्त कर सकते हैं ऐसा ज्ञान देते हैं।

यहाँ अमरत्व को भी ठीक से समझ लेना जरूरी है। यहाँ अमरत्व का मतलब जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति नहीं है बल्कि आत्म शक्ति और आत्मज्ञान की वह अवस्था जहाँ हम चिंताओं और भय से परे हो जाते हैं। यह एक ऐसी मानसिकता का विकास  करने के बारे में है जो रोजमर्रा के जीवन के उतार-चढ़ाव से विचलित नहीं होती।

हमें हमारी भावनाओं पर नियंत्रण सिर्फ सतत प्रयास से ही प्राप्त हो सकती है:

  1. माइंडफुलनेस का अभ्यास करें: अपनी भावनाओं को तुरंत प्रतिक्रिया दिए बिना देखना सीखें।
  2. कृतज्ञता विकसित करें: अच्छे समय की सराहना करें बिना उनसे अत्यधिक जुड़े हुए।
  3. लचीलापन विकसित करें: चुनौतियों को आपदा के बजाय विकास के अवसर के रूप में देखने का प्रयास करें।
  4. संतुलन खोजें: भावनाओं के चरम सीमाओं के बीच झूलने के बजाय एक स्थिर दृष्टिकोण बनाए रखने का प्रयास करें।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि सच्ची ताकत कभी दर्द महसूस न करना या हमेशा खुश रहना नहीं है। यह जीवन के सभी अनुभवों के प्रति एक शांत, संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने के बारे में है। इस दिशा में छोटे कदम से ही हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर सकते हैं और हमारे जीवन में अधिक शांति और संतोष ला सकते हैं।

आप क्या सोचते हैं? क्या आपने कभी किसी ऐसे व्यक्ति से मिले हैं जो इस तरह के भावनात्मक संतुलन को प्रदर्शित करता प्रतीत होता है? यदि आप खुशी और दुःख दोनों को एक ही स्थिर मानसिकता से देख पाते, तो आपका जीवन कैसे अलग हो सकता था?

अपनी राय जरूर दीजियेगा। 

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How to Manifest Your Life Vision

Vedic books are filled with the mantras that invoke and manifest all round harmony – they are like our ultimate life goals written for us to live a joyous life and leave our legacy. That’s the reason all religious preaching guides us to begin our day with the prayer.

Similarly, you need to write your own prayer for your life. You may call it life vision. You keep your life vision closer to you and read it everyday. It’s a recognized fact that when you read your life vision everyday then you think about it. When your goal is in your front, you work for them and they will manifest. That’s in a nutshell is the Law of Attraction.

I have observed that seeing your goal everyday push you to take some actions to get closer to its realization. Knowing that you’re getting closer to your goal strengthens the willpower, your ability to make powerful decisions and increased focus, attention and commitment to accomplish your goal.

If you take just one step toward you big goals every day, you’ll realize those goals weren’t really far away.

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साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालों का विनाश

श्रीकृष्ण कहते हैं:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
“मैं साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालोंका विनाश करने के लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युगयुग में प्रकट हुआ करता हूँ।”
यह एक बहूत बड़ी gauranti है ईश्वर के तरफ से कि जब भी अधर्म, अन्याय, पाप हावी होने लगेगा तो मैं आकर उनका विनाश करूँगा।
साधुता कामनाओ का विनाशक है। साधुता धर्म का विस्तारक है। साधुता स्वयं का उद्धार और लोगों का उद्धार है। साधुता सृष्टि के समस्त जड़ और चेतन के उपकार हेतु सतत प्रयत्नशील रहना है।
तो जब भी हम साधुता के पथ से भटकते हैं तो हमारी आत्मा हमे कचोटती है कि यह ठीक नहीं है लेकिन कामनाओं के प्रचंडता के कारण आत्मानुभूति दब जाती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जब तू धर्म की हानि करेगा और अधर्म को प्रभावित तब तब मैं प्रगट होऊँगा और तुझे फिर से धर्म मार्ग पर लेकर आऊँगा।


“मैं साधुओं की रक्षा करने के लिये और पापकर्म करनेवालोंका विनाश करने के लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करने के लिये मैं युगयुग में प्रकट हुआ करता हूँ।”


यह एक बहूत बड़ी गारंटी है परमात्मा के तरफ से कि जब भी अधर्म, अन्याय, पाप हावी होने लगेगा तो मैं आकर उनका विनाश करूँगा।

साधुता का मतलाब यहां कामनाओ के विनाशक से है। साधुता धर्म का विस्तारक है। साधुता स्वयं का उद्धार और लोगों का उद्धार है। साधुता सृष्टि के समस्त जड़ और चेतन के उपकार हेतु सतत प्रयत्नशील रहना है।

तो जब भी हम साधुता के पथ से भटकते हैं तो हमारी आत्मा हमे कचोटती है कि यह ठीक नहीं है लेकिन कामनाओं के प्रचंडता के कारण आत्मानुभूति दब जाती है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब जब तू धर्म की हानि करेगा और अधर्म को प्रभावित तब तब मैं प्रगट होऊँगा और तुझे फिर से धर्म मार्ग पर लेकर आऊँगा।

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Remember to Put Glass Down

Stress Management- Remember to Put Glass Down

A psychologist walked around a room while teaching stress management to an audience. As she raised a glass of water, everyone expected they’d be asked the “half empty or half full” question. Instead, with a smile on her face, she inquired: “How heavy is this glass of water?” Answers called out ranged from 8 oz. to 20 oz.

She replied, “The absolute weight doesn’t matter. It depends on how long I hold it. If I hold it for a minute, it’s not a problem. If I hold it for an hour, I’ll have an ache in my arm. If I hold it for a day, my arm will feel numb and paralyzed. In each case, the weight of the glass doesn’t change, but the longer I hold it, the heavier it becomes.” She continued, “The stresses and worries in life are like that glass of water. Think about them for a while and nothing happens. Think about them a bit longer and they begin to hurt. And if you think about them all day long, you will feel paralyzed – incapable of doing anything.”

It’s important to remember to let go of your stresses. As early in the evening as you can, put all your burdens down. Don’t carry them through the evening and into the night. Remember to put the glass down! —Author unknown

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Making Possible the Possibilities

Yoga unites mind, body, intellect and soul to be me. Me the purer, me having control on my emotions, my thoughts become clearer and my instincts truer. Yoga lifts me to learn more, live more, love more and instill greater harmony with the higher self.

I can state that practicing yoga releases me from the race of false desires and imposed instincts from the external forces that makes me weaker and weaker and fall away entirely in time.

For me yoga brings suppleness in body, calmness in mind, kindness in heart and awareness in life — yoga prepares me to make possible the possibility.

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Man with hammer: Invert, Always Invert

Charlie Munger mentions Invert as an effective tool often in the book Poor Charlie’s Almanack. Invert means you look at your problem from the opposite perspective, and it may reveal new insights.

“What’s the flip side? What can go wrong that I haven’t seen?”
“Invert, always invert. Many hard problems are best solved only when they are addressed backward.”
“For instance, when almost everyone else was trying to revise the electromagnetic laws of Maxwell to be consistent with the motion laws of Newton, Einstein discovered special relativity as he made an 180- degree turn and revised Newton’s laws to fit Maxwell’s.”
“Well, great declarers in bridge think, “How can I take the necessary winners?” But they think it through backward,  “What could possibly go wrong that could cause me to have too many losers?”
“If you want to help India, the question you should consider asking is not: “How can I help India?” Instead, you should ask: “How can I hurt India?” You find what will do the worst damage, and then try to avoid it.”

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मेरे पिता मेरे गुरु मेरे सर्वस्व

पिता स्वर्ग: पिता धर्म: पिता ही परमं तप:।
पितरीप्रतिमपनये प्रियन्ते सर्व देवता।।
पिता तो सभी अच्छे ही होते हैं हर संतान के लिए सबसे सदैब साये की तरह साथ रहने वाला आसमा से भी विस्तृत छाया।

मेरे पिता मेरे गुरु मेरे सर्वस्व। आज जो भी हूँ बस आपकी शिक्षा, आपके मूल्यों औऱ आपके द्वारा निर्धारित किये गए सांसारिक मापदंडों के पथ पर अग्रसर रहते रहने का फल ही तो है।

हर सुबह जब पूजा के आसन पर बैठकर “मातृ पितृ चारणकामलेभ्यो नाम:” कहता हूँ तो इस विश्वास को और बल मिलता है कि आज कल से बेहतर होगा।
मुश्किल कर पल में जब कोई राह नहीं दिखती तो नस यही सोचकर कि आप होते तो क्या सलाह देते यह सोचकर निर्णय ले लेता हूँ आउट सब ठीक ही होता है।

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

श्रीकृष्ण का यह कहना कि “: यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता॥2/20।” अक्षरशः सत्य ही तो है।

मेरे मन मे मेरे तन मैं मेरे बातो मैं विचारों में आओहि तो हैं ओहिर क्या की नश्वर शरीर को चीर परिचित मुलाकात और व्यवहार का पर्याप्त सुखद  अवसर नहीं मिला।

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मैं स्वयं की योगमाया से प्रकट होता हूं

“मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।”

परमपिता परमेश्वर का प्राकृतिक स्वभाव है की उनकी जब इच्छा हो जाए और जो स्वरूप भा जाए वो उस रूप में प्रकट हो जाते हैं। वो अंधेरा दूर करने के लिए सूर्य की रोशनी हैं, वो प्राणियों के हृदय में आत्मा रूपी रोशनी हैं, उनका प्रकाश स्वरूप है, उनका प्राकट्य सत्य है, वो वायु के रूप में यत्र तत्र सर्वत्र व्याप्त हैं, सारी क्रियाओं के सम्पादक हैं, सारी इच्छाएँ उन्ही से उत्प्रेरित हैं, सारे गंध और सारे स्वाद में वही परमेश्वर हैं।

अपनी इसी प्रकृति के कारण तो वो हेग्रिव को मारने के लिए मत्स्य बन जाते हैं, समुद्र मंथन द्वारा देवताओं को अमृतत्व १४ रत्न मिल जाए इसके लिए कच्छप, पृथ्वी को जल से बचाने के लिए वराह, प्रह्लाद की रक्षा के लिए नरसिंह, त्रिलोक को बलि से मुक्त करने के लिए वामन रूप, अहंकारी क्षत्रियों के नाश के लिए परशुराम, रावण वध और संसार को मर्यादापुरुषोत्तम का पाठ सिखने हेतु राम रूप, निष्काम, कर्मयोगी, दार्शनिक व संपूर्णावतार के रूप में कृष्ण, और बुद्ध के रूप में प्रकट हुए हैं।

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कामना को इस जगत में तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु जानो

श्रीकृष्ण कहते हैं:
“यह कामना रजोगुण में उत्पन्न हुई है यही क्रोध है इसकी भूख बहुत बड़ी है और यह महापापी है इसे ही तुम यहाँ (इस जगत् में) शत्रु जानो।”

अर्थशास्त्री कहते हैं कि आवश्यकता अविष्कार की जननी है और यह एक हद तक ठीक भी है लेकिन यह आवश्यकता हमारी कामना में बदल जाती है। कामना पूर्ति की इच्छा इतनी हावी हो जाती है कि हम उसे पूरा करने के लिए छल, कपट, क्रोध, बेमानी, इत्यादि करने में भी हिचक महसूस नहीं करते।

अक्सर हमारे दुखों का कारण वह वस्तु नहीं है जो हमारे पास है बल्कि वह है जो हमारे पास नहीं है। तो आज आप अपने कामनाओं की लिस्ट बनाइये और फिर उनमें से आवश्यकताएँ कौन सी है और कामनाएँ कौन सी उनका पहचान कीजिए। कामना रूपी सत्रु ने किसी को भी सुखी नहीं किया है तुलसीदास भी मानस में कहते हैं “काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं”।

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My Take on Patanjali Yoga Sutra

I am glad that tomorrow is International Yoga Day and I am also grad that this most ancient and scientific approach towards living a holistic life is gaining the momentum. I thought of throwing some lights on the Patanjali yoga. It aims to delve one into the path of uniting the self with the supreme one.

Patanjali’s narratives in Yoga Sutras are fantastically arranged and brilliantly captured tools for us to attain consciousness through the unison of mind, body and soul. Consciousness is the state in which on does not get agitated facing the misery, free from material attachment, affection, fear and anger. Such person is also called as a “Sage of Steady Wisdom”

Sutra literally means a thread — or like a formula. To simplify, though you may possess beautiful flowers and desire to wear a garland, but you cannot make a garland without a thread. Also you cannot wear a thread alone and claim of wearing a garland. Our body is like flower and our mind is like thread. We need to unite it together to make our soul become like a beautiful garland.
The thread is instilled in us and we are given complete freedom to make our own garland. You can put flowers, or beads, or pearls, or diamonds. The goal of human life is to creating the bonding between thread and flowers to attain conscious.

The Yoga Sutras is not tied to any concept. It is open to the pursuers to read it, understand it and adopt it the way one finds it suitable. Only certain governing principles have been provided. The principles of Yoga Sutra have no meaning to the reader unless one practices it and experiences the benefits.
The first aphorism “Atha Yoganushasanam” means Yoga of Discipline. The right kind of discipline, schooling is required for us to develop unwavering mind control.

“Yoges chitta vritti nirodhah.”  One needs to control totally the mind from thoughts, feelings, and emotions. These emotions creates the disturbances and these disturbances destabilises us every moment. Both body and mind are prone to these disturbances. Yoga Sutra provides the method of physical exercises for conditioning the body for unison and control techniques like Pranayama and Meditation for mind.

This is the broader understanding that I have gained reading, learning, and practicing it for over 3 decades. Let me know what you feel.

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बूँद जो मोती बने

बारिस की एक बूँद समुद्र में गिर जाने के कारण रोने लगी। समुद्र ने मुस्कुराते हुए कहा: “यहाँ तुम अपने भाई बहनों के साथ हो।

एक विशाल परिवार का हिस्सा। अलग होने के लिए एक छलांग लगाने की देरी है उड़ तो जाओगे लेकिन भांप बनकर बिखड़ भी।

आना तो तुझे फिर भी है :- “किसी किसान के खेत में, या किसी नाले में, या किसी तालाब में या की गंगा में गंगाजल बनकर या फिर किसी प्यासे के लिए वरदान बनकर उसके लोटे में।”

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As if, today isn’t my day

So whatever I do, I do it well. Yet, there are days when I feel disappointed, unable to let the factor of chaos stop affecting me.

I am reminded of my father telling me that when you face the chaos; if you allow it to affect you then you are a fly blowing along with the wind but, if you allow it to pass by then you’re the spider.

I am going to stay like a spider, and I know there will be more chances. I just have to go about like I knew it was going to happen.

That’s how I am going to become the greatest version of myself.

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Having purposeful, engaging and trust driven relationships

We connect with people through social media. Like I have over 3500 connections on Facebook and LinkedIn, but I am not pretty sure why I am concerned with so many people except maybe 5% people with whom I would have engaged through real or virtual communication.

Especially when I receive a LinkedIn connection request with a standard invitation message, I start thinking, “Is it for a lead generation or just to get added into the friends list of the requester?”

I’m not sure if I have ever responded to anyone who’s pitched me through social media for sales.

I believe and advise all social networkers, instead of building connections focus on building relationships through purpose, engagement and trust. Treating algorithmic suggestions for sending connection requests may work for social media companies, but not for you for sure.

Maybe we can’t teach everyone how to just be nice, but we can definitely do a better job of building trust driven connections and relations with friends, employees, acquaintances and well strangers.

Welcome to a purposeful, engaging and trust driven relatio

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Be prepared to be wrong to build something original

If you’re not prepared to be wrong, you will never come up with anything original

I love telling this story.

A six-year-old little girl was in her drawing lesson. The girl was so deeply engrossed in her drawing that she didn’t pay any attention to anything around. Watching her so much attentive, the teacher felt fascinated and approached her, and she said, what are you drawing?

The girl said, “I’m drawing a picture of God.”

The teacher quizzed further with her sense of affirmation, “But, nobody knows what God looks like”, and the girl said, “They will in a minute.”

Take a chance like kids. Kids don’t know about the success or the failure. They are not frightened of being wrong…

If you aim to grow, it’s only possible when you’re willing to feel awkward and uncomfortable… when you are prepared to try something new.

From the time you have become an adult, you have lost your kiddish capacity. Regain it back if you aim to stop being frightened of being wrong.

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Thanks Goodness it’s Father’s Day!

The other day, I overheard Mahesh Bhatt on the radio saying, “Today’s generation is gone far ahead of us. What Alia has achieved at age 24, I’d not get there where I was 40.” It certainly made me feel proud about Alia and Mahesh Bhatt.

I have had the opportunity to interact with over 20000 young adults in the past two years through my program on entrepreneurship and employability. I have ended up being more convinced that though they have more ‘exposure’ about the life and the world around them than us(parents), but they are extremely confused, disoriented, disconnected and illusory about life’s realities. 

I guess most parents are spending more money and much less time. I guess parents are into the race to provide material luxury rather than character building. I guess parents feel having a college degree alone solves most of the problem.

I guess fatherhood has become a societal obligation rather than the joyous endeavour.

I want to remind you of the fatherly responsibility of raising a well mannered, responsible, reliable and sociable child and not a mere existence.

I remember a friend saying, “Freedom is fine, but whom do you want to see entering your home – a drunk, spoilt, misbehaved, abusive and arrogant person?”
Happy Father’s Day! Tomorrow will be just an another day…

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