श्रीकृष्ण कहते हैं:
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ |
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते || 15||
“वे बलवान और बुद्धिमान पुरुष, जिनके लिए सुख और दुख समान हैं, और जो इससे पीड़ित नहीं होते, अमरत्व के योग्य हो जाते हैं।”
हमारे शारीरिक और मानसिक अनुभव देश, काल और परिस्थितियों से काफी ज्यादा निर्देशित हैं। अभी जब आप यह पढ़ रहे हैं यदि इस वक़्त आपके आस पास सर्दी है और आपने गर्म कपडे नहीं पहने हैं तो आपको ठण्ड महसूस हो रही होगी। लेकिन ठीक उसी जगह अगर कोई ठण्ड कपडे पहने हुआ है तो उसे इतनी ठंड नहीं लग रही होगी जितनी की आपको।
ठीक सर्दी और गर्मी के एहसास की तरह ही सुख दुख हानि लाभ इत्यादि भी क्षणिक अनुभव मात्र हैं। इनसे उत्प्रेरित भावनाएं स्थायी नहीं होती। वे आते हैं और चले जाते हैं। कोई भी स्थिति हमेशा नहीं रहती।
हमारी तेज-तर्रार दुनिया में हम अक्सर आराम, सफलता और खुशी की तलाश में रहते हैं। लेकिन क्या होगा अगर सच्चे सुख की कुंजी हमारे दर्द और सुख के प्रति दृष्टिकोण में छुपी हो?
मैं जब भी इस श्लोक पर मनन चिंतन करता हूँ तो मुझे बचपन में सुनी हुई एक कहानी याद आ जाती है।
एक छोटे से गांव में रहने वाला रसिकलाल नाम का किसान दिन रात अपने खेतों में मेहनत करके अच्छी फसल उगाता। उसकी आर्थिक चालक काफी अच्छी थी। फिर भी यदि कभी बारिश या किसी प्राकृतिक आपदा के कारण उसकी फसल अच्छी नहीं होती तो वह काफी उदास हो जाता।
एक दिन उसके गांव में एक साधु महाराज आये। साधु महाराज अपने ज्ञान और विचारशीलता के लिए काफी प्रसिद्ध थे। रसिकलाल महात्मा के पास गए और उसे अपनी परेशानियों का उल्लेख किया।
महात्मा ने उसे अगले दिन सुबह फिर से आने को कहा। रसिकलाल महात्मा के सुझाव को मानते हुए फिर से अगले दिन सुबह महात्मा के पास पहुंच गया।
थोड़ी देर बाद महात्मा रसिकलाल के पास आये। उन्होंने रसिकलाल के हाथों में एक मटकी और कुछ उजले और कुछ काले रंग के पत्थर के टुकड़े थमाते हुए बोले: “आज से जब भी खुश महसूस करो तो एक उजला पत्थर का टुकड़ा लेकर इस मटकी में डाल देना और जब भी दुखी महसूस करो तो एक काला पत्थर। जब मैं अगली बार इस गांव में आऊंगा तो तुमसे मिलकर आगे की बात करेंगे”
रसिकलाल ने हामी भरते हुए मटकी और पत्थर अपने हाथ में थाम लिया और अपने घर चला गया।
वह महात्मा के आज्ञानुसार जब भी खुश होता तो एक उजला पत्थर और जब भी दुखी होता तो एक कला पत्थर उस मटकी में डाल देता। जब उसे अच्छी फसल मिलती या परिवार में खुशी का माहौल होता, तो वह सफेद पत्थर डाल देता। और जब फसल खराब होती या किसी परेशानी का सामना करना पड़ता, तो वह काला पत्थर डाल देता। धीरे-धीरे, उनकी मटकी सफेद और काले पत्थरों से भरने लगी।
कुछ महीनों बाद महात्मा फिर से गांव में आये। रसिकलाल अपनी मटकी लेकर महात्मा से मिलने गया। महात्मा ने उसे मटकी से पत्थरों को उलटकर सफ़ेद और काले पत्थरों को अलग अलग गिनने के लिए कहा।
रसिकलाल ने गिनना शुरू किया और उसे ज्यादा ख़ुशी वाले पत्थर उससे थोड़े काम दुखी वाले काले पत्थर मिले।
महात्मा ने हंसते हुए किसान से कहा, “देखो, तुम्हारी जिंदगी में सुख और दुःख दोनों ही लगभग बराबर मात्रा में ही हैं। यहाँ तक की तुम्हारी ख़ुशी दुःख से कहीं ज्यादा ही है.”
किसान ने सिर झुकाकर पूछा, “लेकिन गुरुदेव, मैं अब भी दुखी और परेशान क्यों महसूस करता हूँ जब कोई दुखद घटना घटती है?”
महात्मा ने उत्तर दिया, “क्योंकि तुम अभी भी सुख और दुःख को अलग-अलग रूप में देख रहे हो। तुम सुख में बहुत अधिक डूब जाते हो और दुख में भी बहुत अधिक। तुम्हें समझना होगा कि सुख और दुःख जीवन का हिस्सा हैं, और दोनों को समान रूप से स्वीकार करने से ही तुम सच्चे संतोष और शांति को प्राप्त कर सकते हो। जब तुम्हें यह समझ आ जाएगी कि दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं, तो तुम अपने जीवन के हर क्षण का सामना बिना किसी पीड़ा के कर सकोगे।”
गीता के इस उपदेश से श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, बुद्धिमान और सशक्त पुरुष ख़ुशी के क्षण में न तो अत्यधिक इतराते हैं और न ही दुःख के पलों में बिचलित ही होते हैं। वे जीवन में जो भी आता है, उसके बावजूद संतुलन और शांति की भावना बनाए रखते हैं। और यही कारण है की वो अमरत्व के उत्तराधिकारी हो जाते हैं।
यहाँ श्रीकृष्ण हमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों अनुभवों को शांत स्वीकृति की भावना से देखना सीखकर ही हम खुद को अपनी भावनाओं द्वारा नियंत्रित जाल में फ़साने से मुक्त कर सकते हैं ऐसा ज्ञान देते हैं।
यहाँ अमरत्व को भी ठीक से समझ लेना जरूरी है। यहाँ अमरत्व का मतलब जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति नहीं है बल्कि आत्म शक्ति और आत्मज्ञान की वह अवस्था जहाँ हम चिंताओं और भय से परे हो जाते हैं। यह एक ऐसी मानसिकता का विकास करने के बारे में है जो रोजमर्रा के जीवन के उतार-चढ़ाव से विचलित नहीं होती।
हमें हमारी भावनाओं पर नियंत्रण सिर्फ सतत प्रयास से ही प्राप्त हो सकती है:
- माइंडफुलनेस का अभ्यास करें: अपनी भावनाओं को तुरंत प्रतिक्रिया दिए बिना देखना सीखें।
- कृतज्ञता विकसित करें: अच्छे समय की सराहना करें बिना उनसे अत्यधिक जुड़े हुए।
- लचीलापन विकसित करें: चुनौतियों को आपदा के बजाय विकास के अवसर के रूप में देखने का प्रयास करें।
- संतुलन खोजें: भावनाओं के चरम सीमाओं के बीच झूलने के बजाय एक स्थिर दृष्टिकोण बनाए रखने का प्रयास करें।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि सच्ची ताकत कभी दर्द महसूस न करना या हमेशा खुश रहना नहीं है। यह जीवन के सभी अनुभवों के प्रति एक शांत, संतुलित दृष्टिकोण विकसित करने के बारे में है। इस दिशा में छोटे कदम से ही हम अपनी भावनाओं पर नियंत्रण कर सकते हैं और हमारे जीवन में अधिक शांति और संतोष ला सकते हैं।
आप क्या सोचते हैं? क्या आपने कभी किसी ऐसे व्यक्ति से मिले हैं जो इस तरह के भावनात्मक संतुलन को प्रदर्शित करता प्रतीत होता है? यदि आप खुशी और दुःख दोनों को एक ही स्थिर मानसिकता से देख पाते, तो आपका जीवन कैसे अलग हो सकता था?
अपनी राय जरूर दीजियेगा।