बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि । महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर ॥५॥
बंदउ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ॥
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती ॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किएँ तिलक गुन गन बस करनी ॥
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती । सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥
गुरु चरण वंदनीय हैं क्योंकि उनके वचन सुरुचिपूर्ण, सुगंध तथा अनुराग रास से पूर्ण हैं। गुरु सञ्जीवनी बूटी हैं जो सारे भवरोगों के परिवार का नाश करते हैं। गुरु वंदनीय हैं क्योंकि मुश्किल की घडी में जब कोई उपाय नहीं सूझ रहा हो तो उनके स्मरण मात्र से हृदय में दिव्य दृष्टी उत्पन्न हो जाती है जिससे अज्ञानरूपी अंधकार का नाश हो जाता है।
गुरु वंदनीय हैं क्योंकि संसार में जो दुःख दोष रूपी रात्रि है उसमें उनके ज्ञान के प्रभाव से नेत्र खुल जाते हैं जिससे मार्ग प्रशस्त दिखने लगते हैं।
गुरु वंदनीय हैं क्योंकि उनके चरण धूल उस अंजन के तरह है जिसे लगाने से पर्वतों, वनों, और पृथ्वी के गुह्य से भी गुह्य रहश्य अपने आप प्रकट होने लगते हैं।